थोड़ा-सा समय जाता है, बस; परन्तु खर्च कुछ नहीं आता। औजार अच्छे रखनेसे उनकी आयु बढ़ती है और अंगौछे आदि स्वच्छ रखनेसे ग्राहकोंकी संख्या। गोरे नाई भी अपने औजार आदि गन्दे रखते हैं । परन्तु हम लोगोंको बुरी बातोंमें उनकी नकल करनेकी आवश्यकता नहीं है।
इंडियन ओपिनियन, ११-२-१९०५
३०३. "रंगका प्रश्न"
रैंड रेटपेयर्स' रिव्यूमें उपर्युक्त शीर्षकसे एक सम्पादकीय लेख प्रकाशित हुआ है। उसका एक उद्धरणं हम अन्यत्र प्रकाशित कर रहे हैं, और यह इसलिए कि हमारे सहयोगीने ठीक-ठिकानेकी और खरी बातें कही हैं। लेख एक ऐसे व्यक्तिका लिखा हुआ है जो-दक्षिण आफ्रिका के कुछ छुटभैये राजनीतिज्ञोंके विपरीत-इस विषयकी चर्चा करते समय परिस्थितियोंका ठीक अनुपात स्मरण रख सकता है। यह विषय बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यदि दक्षिण आफ्रिका एक अब्रिटिश और एशियाई-विरोधी नीतिपर अपनी मुहर लगा देता है तो उसके परिणाम बहुत गम्भीर हो सकते हैं। परन्तु हम विश्वास नहीं कर सकते कि हमारे राजनीतिज्ञ स्थानिक मामलोंपर विचार करते हुए साम्राज्यिक हितोंको भुला देंगे। एशियाई-विरोधी जिहादको हम स्वयं अपने सहयोगीकी अपेक्षा अधिक महत्त्व नहीं देते; क्योंकि वस्तुस्थितिको जरा-सा देख लेनेसे ही किसीको भी पता चल सकता है कि इस प्रकारके आन्दोलनके लिए कितना कम आधार है। सारी बातका आरम्भ व्यापारिक ईर्ष्यासे हुआ है। केवल इस तुच्छ हेतुसे ही भारतीय-विरोधी आन्दो-लनको स्फूर्ति मिल रही है और यह उन सबके लिए बिलकुल स्पष्ट है, जो रंग-द्वेषसे अंधे नहीं बन गये हैं। रिव्यूने यह कहकर सरल सत्यमात्र व्यक्त किया है:
भारतीय व्यापारियों को साम्राज्यके किसी भी भागमें व्यापार करनेसे रोकने के लिए ग्रामवासियोंका सार्वजनिक सभाएँ करनेका गौरवहीन दृश्य बहुत ही बेहूदा और मूर्खतापूर्ण है।
हम जानते हैं कि बॉक्सबर्ग और पॉचेफस्ट्रमकी ओर लेखकका ध्यान विशेष रूपसे रहा है। बॉक्सबर्ग तो एक ऐसा गाँव है, जो अपनी तुच्छ, संकीर्ण रूढ़ियोंके विचारसे ऊपर उठ नहीं सकता। और पॉचेफ्स्ट्रम एक छोटा-सा गाँव है, जो एशियाइयोंका कट्टर विरोधी बननेपर ही प्रसिद्ध हुआ है। और फिर भी अपेक्षा यह की जाती है कि भारतीयोंको-जिनकी संख्या, रिव्यूके कथनानुसार, साम्राज्यकी कुल जनसंख्याकी आधी है।—तुच्छ प्रान्तीय कस्बोंकी चीख- पुकारके कारण ब्रिटिश प्रजाके अधिकारोंसे वंचित कर दिया जायेगा।
माना कि भारतीय व्यापारी यूरोपीयोंसे सस्ते दामोंपर माल बेचते हैं। तो क्या प्रत्येक यूरोपीय व्यापारी भी अपने प्रतिस्पर्धीके साथ ठीक ऐसा ही नहीं करता? क्या स्पर्धा ही व्यापारका प्राण नहीं है? माना कि भारतीय "तेलहे चिथड़ेकी बू" पर जिन्दगी बसर कर सकते हैं; परन्तु क्या कोई भी चिकित्साशास्त्री यह नहीं कहेगा कि यूरोपीयोंको जरूरत ठीक इस बातकी है कि वे अपने आहारको सीधा-सादा बनायें? तो फिर भारतीयोंपर उनके इस सद्गुणका ऐसा आरोप क्यों कि मानो वह कोई अपराध हो? सच बात यह है कि यूरोपीय अपने भारतीय प्रतिस्पर्धियोंसे घृणा करते हैं, क्योंकि उन्हें स्वयं ग्राहकोंसे अपने मालकी खूब बढ़ाई चढ़ाई कीमतें वसूल करनेका मौका नहीं मिलता। अगर एशियाई विरोधियोंकी विजय हो गई तो