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"रंगका प्रश्न"

जिन लोगोंको सबसे अधिक हानि भोगनी पड़ेगी वे होंगे गोरे ग्राहक। दक्षिण आफ्रिकी लोगोंको यह याद रखना चाहिए।

रिव्यूने कहा है:

बहुत से ऐसे तरीके मौजूद हैं, जिनसे गोरे लोग अपने हितों और अधिकारोंका संरक्षण कर सकते हैं, और जिनमें सम्राटकी प्रजाके एक समुदायका दूसरे समुदायके प्रति बार-बार यह तिरस्कार व्यक्त करते रहना जरूरी नहीं है। अगर कुछ थोड़े-से गोरे लोग व्यापार करनेवाले एशियाइयोंसे द्वेष करते हैं, जबकि वे उन्हें मजदूरोंके तौरपर लानेके लिए समुद्र और पृथ्वी एक कर डालते हैं, तो फिर वे उन भारतीयोंके साथ व्यापार करनेके लिए बाध्य तो नहीं है। क्यों नहीं वे उनका पिंड छोड़ देते, और अपनी ही जातिके लोगोंके साथ व्यापार करते?

एशियाई विरोधी स्थितिको उग्र करनेके लिए यह एक तर्क और काममें लाया जाता है कि वे लोक-स्वास्थ्यके लिए खतरनाक है। ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। परन्तु यदि ऐसा है तो निश्चय ही दोष भारतीयोंका नहीं, सफाई-अधिकारियोंका है।

सारे दक्षिण आफ्रिकामें भारतीयोंने स्वास्थ्यके नियमोंके प्रति विशेष अनुकूलता दिखलाई है। जोहानिसबर्ग में हालमें जो प्लेग फैला था उसमें सारे भारतीय समाजने जिस तरह प्लेग-अधि-कारियोंके निर्देशोंको शिरोधार्य किया, उससे इसका निर्विवाद और उल्लेखनीय प्रमाण मिलता है। एक अन्य आरोप भारतीयों पर यह लगाया गया है कि उन्होंने पिछले दक्षिण आफ्रिकी युद्धमें साम्राज्यके हितार्थ हथियार नहीं उठाये। इस आरोप के निर्माताओंका अज्ञान नमूनेका है, क्योंकि खुद इन लोगोंके सिवा सारा संसार जानता है कि भारतीय साम्राज्यके लिए लड़ने, और जरूरत होनेपर मर जानेके लिए, उतने ही तैयार थे जितनी कि साम्राज्यकी कोई भी अन्य जाति। परन्तु उनको वैसा करने नहीं दिया गया। कुछ लोग मौजूद हैं जो जानते हैं कि नेटाल और ट्रान्सवालके भारतीयोंने बार-बार नेटाल-सरकारको अर्जियाँ दी थीं कि उन्हें किसी भी हैसियतसे " युद्धमें जानेकी इजाजत दी जाये। और कुछ ऐसे लोग भी मौजूद हैं जो जानते हैं कि सारी ब्रिटिश फौजमें नेटाल भारतीय स्वयंसेवक आहत-सहायक दल (नेटाल इंडियन वॉलंटियर एम्बुलैंस कोर)[१] के नेता ही ऐसे थे जिन्होंने सेवा तो की, परन्तु कोई भी पुरस्कार नहीं लिया। सच बात यह है कि भारतीय समाज में ऐसे लोग हैं, जो अधिकतर एशियाई-विरोधियोंसे अधिक ब्रिटिश हैं। उन्होंने देशभक्ति तथा लोकसेवाकी उस भावनामें अपना पूरा-पूरा हिस्सा बँटाया है, जिससे साम्राज्य, जैसा भी आज है, वैसा बना है। यह मानना एक भोंड़ी बात होगी • कि जो लोग अपनी ब्रिटिश प्रजा की हैसियतसे परिचित हैं वे चुपचाप बाजार या वस्तियोंमें निर्वा-सित हो जाना मंजूर कर लेंगे। इतना ही नहीं देशभक्तिकी इस भावनाको मिटानेका प्रयत्न करना एक अपराध है। और यह आशा करना भी उतना ही मूर्खतापूर्ण है कि वे गलतबयानी, अन्याय और धमकियोंके तरीकोंसे कुचल जायेंगे। दक्षिण आफ्रिकाके एशियाई-विरोधियोंके रुख का सार संक्षेपमें यह बताया जा सकता है—कुत्तेको पहले बदनाम करो फिर मौत के घाट उतार दो।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १८-२-१९०५
  1. देखिए खण्ड ३, पृ४ १३८-३९।