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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 4.pdf/४१८

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३०४. प्लेगका छिपाव

हमें खेद है कि डर्बनमें अब भी ऐसे भारतीय हैं जो अबतक छूतके रोगको छिपाने के गम्भीर परिणामों को नहीं जानते। गत सोमवारको डर्बन-निगमके एक भारतीय कर्मचारीको एक प्लेगके मरीजको छिपाने के आरोप में २० पौंड जुर्माने या तीन महीने की कड़ी कैद की सजा दी गई। सजा शिक्षात्मक है, और यह ठीक ही है। मामला एक लड़कीका था। उसके पिताने जैसे देखा कि वह बीमार है, उसे एक खाली मकानमें हटा दिया था। मजिस्ट्रेटके सामने उसने कारण बताते हुए कहा, मैं नहीं चाहता था कि यूरोपीय डॉक्टर उसे मेरे पाससे ले जायें। शायद यह बहुत स्वाभाविक था; परन्तु भारतीयोंको जानना चाहिए कि इस मामलेमें वे उसी कानूनके अधीन हैं, जिसके अधीन यूरोपीय हैं। रोगी कोई भी हो, छूतकी बीमारीके हरएक मरीजकी सूचना अधिकारियोंको दी जानी चाहिए; और हरएकको, चाहे वह भारतीय हो या यूरोपीय, अपनी निजी भावनाओंको सामान्य हितकी दृष्टिसे अपने ही भीतर रखना चाहिए। यह आशा करना बहुत अधिक है कि गिरमिटिया वर्गका प्रत्येक भारतीय इस विषयको इसी निगाहसे देखेगा; परन्तु ऊँचे वर्गके भारतीयोंसे यह आशा करना बहुत अधिक नहीं कि वे रोगकी रोकथाम करने में डॉ० म्यूरिसनकी मदद करेंगे। हम फिर अपने १० दिसम्बरके अंकमें प्रकाशित स्वास्थ्य-अधि-कारीके पत्र और उसपर अपनी टिप्पणीकी ओर पाठकोंका ध्यान आकर्षित करते हैं। हमारे भारतीय मित्र याद रखें कि इस प्रकारके प्रत्येक मुकदमेसे—अनुचित रूपसे ही सही समाज बदनाम होता है। लेकिन कसूर सिर्फ भारतीयोंका नहीं है। हम नेटाल मर्क्युरीके इस कथनसे सहमत नहीं हो सकते कि "कतिपय भारतीयोंके कार्योंके कारण ही हमें अबतक प्लेगने नहीं छोड़ा है।" यह सच है कि भारतीय ही आम तौरपर इस भयंकर बीमारीके शिकार होते हैं; परन्तु जैसा कि हमारे गत सप्ताहके अंकमें एक पत्र लेखकने इस प्रश्नका कि, “हमारे प्लेगोंका प्रजनक कौन है? उत्तर देते हुए लिखा है—"भारतीयोंको ऐसी परिस्थितियों में कौन रखता है, जिनसे कि वे प्लेग-प्रजनक बनते हैं?" डर्बनमें, नगर परिषदके सीधे नियन्त्रणमें, फिर अगर कुदरती नतीजेके तौरपर प्लेग फैलता है तो सारा दोष बेचारे भारतीयोंके सिर क्यों मढ़ा जाता है? वास्तवमें बात इतनी महत्त्वपूर्ण है कि उसे सहज में छोड़ा नहीं जा सकता। अगले अंक में हम नगरपालिकाके सफाईके पूरे प्रश्नपर चर्चा करना चाहते हैं। "प्लेग के मुकाम" मौजूद हैं;

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १८-२-१९०५