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९. जोहानिसबर्गका वह अस्वच्छ क्षेत्र

गत ७ तारीखको मुख्य मार्ग, जोहानिसबर्गमें एक आम सभा हुई। जोहानिसबर्ग नगर-परिषदने जिन जमीनोंपर अधिकार कर लिया है उनके मुआवजे और उस रकबेकी जमीनोंके पुराने मालिकोंको दिये जानेवाले किरायेके बारेमें उसके रुखपर इस सभाके वक्ताओंने अपने विचार प्रकट करने में किसी प्रकारकी रू-रियायत नहीं की। बड़ी सख्त भाषाका उपयोग किया गया। नगर परिषदके कार्यको एक बलात्कार माना गया। सभाके अध्यक्ष श्री मार्क गिबन्सने कहा, "नगर-परिषदका कार्य सचमुच लज्जाजनक है, और यह एक लादा हुआ बोझ है जिसे सहन नहीं करना चाहिए।" दूसरे वक्ताने तो इस जमीन लेनेको "जमीनें जब्त" करनेकी संज्ञा दी। नगर-परिषदके सदस्योंपर खुलकर बुरे उद्देश्योंके आरोप तक लगाये गये। हम नहीं मानते कि वे इन विशेषणोंके पात्र है। जबतक हमारे सामने कोई निश्चित प्रमाण नहीं हैं, हम यह विश्वास नहीं करेंगे कि श्री क्विन और उनके साथियोंका हेतु शुद्धके अतिरिक्त कुछ और रहा होगा। परन्तु अस्वच्छ क्षेत्रकी समितिके पक्षमें इससे अधिक हम और कुछ नहीं कह सकते। उनका हेतु अत्यंत संकीर्ण रहा है, इसमें तो हमें तिल-भर भी सन्देह नहीं है और चूंकि भारतीयोंने एक बड़ी संख्यामें मुआवजेके लिए अपने दावे पेश कर रखे हैं, इसलिए यह उचित होगा कि समितिपर वक्ताओंने जो दो आरोप लगाये है, उनकी भी हम जाँच कर लें। इस सम्बन्धके तथ्य अपने आपमें इतने गम्भीर हैं कि यदि वक्ता केवल तथ्य सामने रख देते तो भी उनका कर्तव्य पूरा हो जाता। नगर-परिषदके खिलाफ सबसे बड़ा प्रमाण तो प्रत्यक्ष उसीकी यह स्वीकृति है कि १,२०० दावेदारोंमें से केवल १६४ ने नगर-परिषद द्वारा दिया गया अत्यन्त अपर्याप्त मुआवजा स्वीकार किया है। इसपर शायद यह कहा जा सकता है कि दूसरे आदमियोंकी अपेक्षा खुद दावेदार अपने लाभ-हानिको अधिक अच्छी तरह जानते हैं, अतः परिषद द्वारा निश्चित मुआवजेका उनके द्वारा स्वीकार कर लिया जाना ही इस बातका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि निश्चित मुआवजा बहुत वाजिब था। लेकिन यह दलील पेश करनेवाले इस मुख्य बातको भूल जाते हैं कि नगर-परिषद और दावेदार समान भूमिकापर नहीं हैं। दावेदार बहुत गरीब है। वह जमीन उनकी आजीविकाका एकमात्र साधन थी। साहूकार शायद उन्हें अलग तंग कर रहे होंगे। ऐसी सूरतमें उनकी इच्छा हो या न हो, उन्हें तो अपने प्रतिपक्षीसे, जिसके पास अक्षय खजाना पड़ा है, समझौता करना ही था। अस्वच्छ क्षेत्रके गरीब निवासियोंके मुकाबले में नगर-परिषदके साधन निश्चित रूपसे असीम हैं। इसलिए हम तो मानते हैं कि इन थोडे़से दावोंका निपटारा भी नगर-परिषदके पक्षमें पेश नहीं किया जा सकता। बल्कि जब हम देखते हैं कि अनिर्णीत दावोंकी संख्या बहुत अधिक है तब यह उसके खिलाफ सबसे बड़ा और उसीका पेश किया गया प्रमाण है। दावोंके रूपपर विचार करते हुए हमें ज्ञात हुआ है कि जायदादोंकी कीमतका निर्णय करने में किसी पद्धतिसे काम नहीं लिया गया है। कुछ जमीनें ऐसी हैं, जिनपर बड़ी सुथरी इमारतें खड़ी है। जिन जमीनोंपर भद्दे, नंगे ढाँचे-भर खड़े हैं, उनकी कीमतें भी इनके समान ही कृती गई हैं। याद रहे कि इन दोनों प्रकारकी जमीनोंकी कीमतें इमारतोंको छोड़कर समान ही हैं। क्योंकि वे उसी बस्तीमें और एक-दूसरेसे लगी हुई हैं। और ऐसे उदाहरण इक्के-दुक्के नहीं हैं। ऐसे बहुत-से उदाहरण पेश किये जा सकते हैं कि जब पिछली बार वे बिके थे तब उनकी कीमतें अच्छी आई थीं, किन्तु परिषदके