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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कहना दोषयुक्त नहीं समझा जा सकता। इस झगड़े को बढ़नेसे रोकनेके लिए नगर-परिषदके एक सदस्यने दरखास्त की कि इस अपीलको खारिज किया जाये। और एक दूसरे सदस्यने उसका अनुमोदन किया। साथ-साथ कानूनकी यह दलील भी पेश की कि कानूनके अनुसार यह अधिकार परवाना-अधिकारीको है कि वह किसीको परवाना दे या न दे। जब कानूनकी बात की गई तब अर्जदारके वकीलने कहा कि अधिकार भी कानूनके अनुसार ही बरता जा सकता है और कानून तोड़ा जाये अथवा कानूनका उल्लंघन किया जाये तो यह न्याय नहीं गिना जा सकता। परिषद के सदस्योंको यह कथन उचित नहीं जँचा। फलतः सेठ हुंडामलको परवाना प्राप्त नहीं हुआ और इस कारण दूकान बन्द करनी पड़ी।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १८-२-१९०५

३०६. कारपोरेशनकी गन्दगी

डर्बन नगर परिषदकी साधारण मासिक बैठकमें इसी ७ तारीखको ईस्टर्न फ्ले और वेस्टर्न फ्ले (पूर्वी और पश्चिमी दलदली बस्तियों) के सम्बन्धमें गंदगी निरीक्षक (इन्सपेक्टर ऑफ न्यू-सेन्सेज) की रिपोर्ट पेश की गई थी। यह उल्लेखनीय है कि इसमें उक्त अधिकारीने कुछ खास क्षेत्रोंका जिक्र किया है। उसने उन क्षेत्रोंके ज्यादातर मकानोंको गिराऊ और सफाई तथा निर्माणकलाकी दृष्टिसे सदोष बताते हुए यह भी कहा है कि बस्तियोंकी जमीन पानी निकाल कर सुखाई नहीं गई। इसके अलावा, उसने इन मकानोंको "निवासके उद्देश्यसे प्रयुक्त" और "मनुष्यके निवासके अयोग्य" घोषित किया है।"

हमें बरबस उस सभाकी याद आती है, जो जून १९०३ में नेटाल भारतीय कांग्रेसके तत्त्वावधान में हुई थी और जिसमें महापौरके एक आरोपकी जोरोंके साथ चर्चा की गई थी। महापौरने नगरपालिकाके सामने एक कार्य-विवरण पेश करते हुए भारतीयोंकी गंदी आदतोंका जिक्र किया था और बताया था कि अनेक कारणोंमें से एक कारण यह है, जिससे भारतीयोंको बस्तियों में या—जैसा कि उन्हें नरम भाषामें नाम दिया गया है—बाजारोंमें भेज दिया जाना चाहिए।

स्मरण रहे, लॉर्ड मिलनरने अपनी १९०३ की स्मरणीय सूचना ३५६ द्वारा उन एशिया-इयोंके बारेमें किये जानेवाले अपवादकी ओर खास तौरपर ध्यान आकर्षित किया था, जिनकी रहन-सहनकी आदतें और जिनके विशेष गुण यूरोपीय विचारों या सफाईके आदर्शोंके प्रतिकूल न हों। हम कहनेका साहस करते हैं कि प्रत्येक डॉक्टर या अस्पतालकी परिचारिका हमारे इस कथनकी पुष्टि करेगी, कि ऊँचे वर्गीक यूरोपीय भी वैज्ञानिक सफाईको सदा अनुकूल दृष्टिसे नहीं देखते। परन्तु यह तो गौण बात हुई। असल बात यह है कि यूरोपीयोंके सामान्य मतको उचित मापदण्ड मान लेना सदा ही ठीक नहीं होता। वे तो उन बातोंके बारेमें भी बहुधा बिलकुल अज्ञानमें होते हैं जिनका उन्हें सबसे ज्यादा निश्चय होता है; और जिन परिस्थितियोंसे वे अपरिचित होते हैं उनके विरुद्ध अक्सर उनके पूर्वग्रह भी होते हैं। यह कोई छिपी बात नहीं है कि जन-साधारणका मत सुशिक्षित लोगोंके मतसे बहुत भिन्न और अक्सर विरुद्ध भी होता है। अध्ययनशील व्यक्ति जो बातें कहता है उन्हें इकट्ठा करने, उनकी छान-बीन करने और उनके गुण-दोषोंका निर्णय करनेका ज्यादा बड़ा और ज्यादा बार मौका पाता रहता है।