३०७. प्लेग
सफाई के प्रश्नपर, जहाँतक उसका असर भारतीय समाजपर पड़ता है, सम्पूर्ण रूपसे पहले ही विचार किया जा चुका है।[१] अब हमारी तजवीज है कि जो खास बीमारी महामारीके रूपमें फैलकर अभागे लोगोंका शिकार कर रही है, उसके कारणकी छानबीन की जाये और उस कारणके परिणामोंपर विचार किया जाये।
गत शनिवारके मर्क्युरीमें एक लम्बा अनुच्छेद छपा है। उसमें अधिकारियोंके प्रति "भारतीयों" के उस रवैयेकी चर्चा है जो, कहा जाता है, उन्होंने खास तौरसे प्लेगकी बीमारीको छिपाने के बारेमें अपनाया है। लेखकने कई विचित्र और अधूरी बातें कही हैं, उनके आधार-पर बहुत-से शिकायती प्रश्न उठाये हैं और अन्तमें यह सुझाव देकर वक्तव्य समाप्त किया है कि "सम्भवतः इस आचरण (प्लेगके छिपाव) का बीमारीके समय-समयपर फैलनेके साथ गहरा सम्बन्ध है।"
सीधे सच्चे तथ्य क्या हैं? हमारा समाज गोरों और भारतीयोंसे बना है। गोरोंमें भारतीयों-की अपेक्षा गरीब लोग कम हैं। तब इससे निष्कर्ष निकलता है कि एशियाई आनादीके गरीब लोगों के यूरोपीय गरीबोंकी अपेक्षा अधिक संख्यामें रोगका शिकार होनेकी गुंजाइश है। दूसरे, एक यह आरोप लगाया गया है कि "भारतीय जानकारी देनेसे इनकार करके और अगर कोई बीमार हो तो हर तरहसे उसका पता-ठिकाना छिपानेका प्रयत्न करके" अधिकारियोंके काममें गम्भीर बाधा डालते हैं। हम फिर पूछते हैं—"कौनसे भारतीय?" निश्चय ही भारतीय समाजके सबसे ज्यादा नासमझ वर्गके कुछ लोगोंका दोष सारे भारतीय समाजपर मढ़नेका इरादा तो इस आरोपमें नहीं है। तो फिर, लापरवाहीके साथ ये सामान्यीकरण क्यों? क्या समझदार जनताको यह समझाना सम्भव नहीं है कि भारतीयोंके बीच उतने ही बारीकीसे बने उपविभाग हैं, जितने कि किन्हीं भी अन्य सभ्य लोगों में हैं? यह देखकर निराशा होती है कि किस प्रकार निहायत गैर-जिम्मेदारीके साथ ये झूठी बातें निरन्तर कही जाती हैं। इससे आश्चर्य होता है कि क्या कभी इतिहासके तथ्योंका अध्ययन किया गया है और क्या वे आजके जीवन-दर्शनका अंग बन गये हैं।
ऊँचे वर्गोंके भारतीय अपने कम भाग्यशाली भाइयोंको शिक्षा तथा व्यक्तिगत उदाहरणसे यह बताते कभी थकते नहीं कि जो निर्दय रोग हमारे बीच फैला है, उसका मूलोच्छेद करनेके प्रयत्नोंमें अधिकारियोंके साथ सहयोग करनेकी आवश्यकता है, ताकि उनके प्रयत्न विफल न हों। स्वयं हमने बार-बार अपने इन स्तंभों में अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं दोनोंके द्वारा यह बतानेका अधिक से अधिक प्रयत्न किया है कि "सफाईका स्थान ईश्वर भक्तिके बाद दूसरा है।" और फिर भी हमारे बीच ऐसे मूर्ख लोग हैं जो पूछते हैं—“भारतीय” अधिकारियोंके साथ सहयोग क्यों नहीं करते!
इसके अलावा, अगर भारतीयों और यूरोपीयोंके बीच वर्गगत तुलना की जाये, तो हमें निश्चय है कि भारतीयों में प्लेग की घटनाओंको छिपाने तथा प्लेगके रोगियोंको विज्ञापित करनेके प्रति अनिच्छाके मामले यूरोपीयोंकी अपेक्षा ज्यादा नहीं हैं। हम इस वस्तुस्थितिपर विशेष जोर देना नहीं चाहते और न यह तर्क ही पेश करना चाहते हैं कि आप भी तो ऐसा ही करते हैं। फिर भी
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