त्रासदायक व्यवस्थाओंसे भारतीयोंका सहयोग प्राप्त नहीं हो सकता। हम नहीं समझ सकते कि किसी ऐसे व्यक्तिको, जो एक योग्य व्यापारी हो, पूरी तरह ईमानदार हो और दूसरोंकी सहायतासे अपना हिसाब-किताब अंग्रेजीमें रखने में समर्थ हो, क्यों परवाना प्राप्त करनेसे वंचित किया जाना चाहिए। हम ऐसी बीसियों दुर्दशाग्रस्त झोंपड़ियाँ बता सकते हैं, जिनके मालिक “किसी यूरोपीय भाषा" का ज्ञान रखते हैं, परन्तु जो किसी भी महत्त्वके शहरके लिए हर तरहसे लज्जाजनक हैं। ऐसे लोगों को परवाने क्यों मिलें और किसी अच्छे शिष्ट भारतीय प्रजाजनका, जिसके व्यापारका स्थान बिलकुल स्वच्छ हो और जिसका चरित्र आपत्ति रहित हो, मुँहपर यह थप्पड़-सा मारकर अपमान क्यों किया जाये कि वह अयोग्य है, क्योंकि उसे कोई यूरोपीय भाषा नहीं आती? हमें विश्वास है कि केप-निवासी ब्रिटिश भारतीय अपने ऊपर भार लादनेके इस नये प्रयत्नका विरोध करनेमें सहयोग करेंगे। हमें यह भी आशा है कि सरकार विधेयकमें से इस आपत्तिजनक उपधारा को निकालकर सम्बन्धित व्यापारियोंके भारी समाजका सक्रिय सहयोग प्राप्त करेगी।
इंडियन ओपिनियन, ४-३-१९०५
३१०. भारतीयोंके परवाने: सजग होनेकी जरूरत—२
ये दोनों हारें[१] सेठ हुंडामलकी ही हारें हुईं, ऐसा न समझा जाये; बल्कि ये नेटालके तमाम भारतीय व्यापारियोंकी हुईं, ऐसा मानना चाहिए। हम यह नहीं कहते कि सर्वोच्च न्यायालयने जानबूझकर गैरइन्साफी की हैं, किन्तु हम मानते हैं कि यदि सर्वोच्च न्यायालयके फैसलेपर सम्राटकी न्यायपरिषद (प्रीवी कौंसिल) में अपील की जाये तो परिणाम अवश्य भारतीय व्यापारियोंकी दलीलके पक्ष में होगा। यदि कानून बनानेवालोंका मन्शा सर्वोच्च न्यायालयके कथनानुसार हो तो प्रश्न यह उठता है कि परवानेका फार्म पहले जैसा ही क्यों नहीं? उसमें तो केवल शहरका ही नाम था, स्थानका नहीं। यह स्थान लिखनेकी बात बादमें ही दाखिल की गई है। और यह सर्वोच्च न्यायालयके फैसलेकी काट है। परन्तु, फिलहाल कानूनी बारीकीकी छानबीन आवश्यक नहीं। यह समझना आवश्यक है कि परवानेका कानून कुल मिलाकर भारतीय व्यापारियोंके लिए अत्यन्त हानिकर है; और इस कानूनको बदलवानेके लिए यथासम्भव उपाय किये जाने चाहिए। कानून अत्याचारपूर्ण है, उससे बहुत गैरइन्साफी हुई है और अनेक दूकानदार बरबाद हुए जा रहे हैं, यह बात अच्छी तरह ज्ञात हो चुकी है और सब लोग यह स्वीकार करते हैं; तब हमारा स्पष्ट कर्त्तव्य है कि हम ऐसे कानूनको बदलवानेकी भरसक कोशिशें करें और जबतक सफलता नहीं मिलती तबतक सुस्त न पड़ें। यह स्पष्ट है कि ऐसी बातों में थोड़ी-सी भी लापरवाही करना बहुत खतरनाक है।
फिलहाल, फौरन क्या किया जाये इसका विचार करें। पूरी, भरोसेकी, पक्की जानकारी प्रत्येक नगरसे प्राप्त करनी चाहिए कि वहाँ वर्षके आरम्भ में भारतीयोंको बाकायदा परवाने मिले हैं या नहीं; और यह जानकारी यथासम्भव प्रकाशित करनी चाहिए। जो अगुआ हैं उन्हें इस जानकारीपर विचार करना चाहिए और उचित कदम उठाने चाहिए। भारत और विलायत में हमारी ओरसे काम करनेवाले लोगोंके कानोंतक ये सब तथ्य पहुँचाने चाहिए, जिससे हमारे स्थानीय प्रयत्नोंके साथ-साथ वहाँ भी हम लोगोंका समर्थक आन्दोलन चल पड़े। जबतक इस प्रकार काम नहीं होगा तबतक हम व्यापारियोंकी परिस्थिति सुधरनेकी आशा रखना व्यर्थ
- ↑ देखिए “भारतीयोंके परवाने सजग होनेकी जरूरत" १८-२-१९०५।