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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हिन्दुओंका अपना दावा यह है कि उनके शास्त्रोंकी निर्माणतिथि पुरातन कालके कुहरेमें आच्छन्न है, क्योंकि ये शास्त्र अपौरुषेय हैं। इसके विरुद्ध कुछ यूरोपीयोंकी मान्यता है कि ये शास्त्र ३,००० या ४,००० वर्षोंसे अधिक पुराने नहीं हैं। तथापि संस्कृतके प्रसिद्ध विद्वान श्री तिलकने इन ग्रंथोंमें आये हुए ज्योतिषके कतिपय तथ्योंके आधारपर इन्हें कमसे कम दस हजार वर्ष पुराना गिना है—भले ही वे केवल ईसाके कोई तीन सौ वर्ष पूर्व लिपिबद्ध किये गये हों। वेदोंके-जो इन शास्त्रोंकी संज्ञा है—विभिन्न सूक्त हैं। प्रत्येकका विशिष्ट काल है और वे एक-दूसरेसे बिलकुल स्वतन्त्र हैं। उनमें एक विशेषता यह है कि उनके एक भी प्रणेताका नाम भावी पीढ़ियोंको ज्ञात नहीं हुआ। वेदोंने पश्चिमके कई प्रतिभासम्पन्न व्यक्तियोंके विचारोंको प्रेरणा दी है जिनमें आर्थर शॉपेनहॉर और प्रोफेसर मैक्समूलरके नाम लिये जा सकते हैं।


हिन्दू धर्मावलम्बियोंकी संख्या बीस करोड़से ऊपर होगी। धर्म उनके प्रत्येक आचारमें प्रविष्ट है। आध्यात्मिक पक्षमें हिन्दू धर्मका प्रधानस्वर है-मोक्ष, अर्थात् सर्वव्यापी परमात्मतत्त्वमें आत्माका अन्तिम रूपसे विलीन हो जाना। धर्मसे सम्बन्धित मुख्य विशेषता है अखिल-देवतावाद, और नीतिके स्तरपर सर्वाधिक द्रष्टव्य गुण है आत्मत्याग तथा उससे निःसृत उसका अनुमेय सहिष्णुता। सामाजिक व्यवहारमें जाति सर्वोपरि थी और आचारमें पशुओंका बलिदान। जब हिन्दू धर्म अपेक्षाकृत अधिक कर्मकाण्डी हो गया तब राजपुत्र गौतम बुद्धने दीर्घकालतक तपस्या करके वस्तुओंके आध्यात्मिक मूल्यको जानकर यह उपदेश करना प्रारम्भ किया कि पशुबलि अनाध्यात्मिक है और प्रेमके परम स्वरूपकी अभिव्यक्ति, जीवित प्राणियोंका नाश करनेकी दिशा से विमुख होकर, उस सहिष्णुताकी भावनाको फैलाना है जो पहलेसे उनके धर्मका सिद्धान्त है। हिन्दू धर्म कभी ईसाई अथवा इस्लाम मतकी तरह प्रचारक धर्म नहीं रहा; किन्तु, सम्राट् अशोकके समयमें देश-देशान्तरोंमें बौद्ध भिक्षु इस नये मतका प्रचार करनेके लिए भेजे गये। हिन्दू धर्मपर बौद्ध मतका कुछ वैसा ही सुधारक प्रभाव पड़ा जैसा कैथोलिक मतपर प्रोटेस्टेंट मतका हुआ था। किन्तु इस सुधारकी आन्तरिक भावना बहुत अलग थी। किसी हिन्दूके मनमें बौद्धोंके प्रति दुर्भावना नहीं थी। यह एक ऐसी बात है जो प्रोटेस्टेंटों और कैथोलिकोंके बारेमें नहीं कही जा सकती। कई बार कहा जाता है कि बादमें भारतमें बौद्ध मतका ह्रास हो गया। किन्तु वास्तवमें ऐसा नहीं है। बौद्ध भिक्षुओंने अत्यधिक लगनसे अपने मतका प्रचार किया और तब हिन्दू पुरोहितोंमें ईर्ष्या जागी। उन्होंने बौद्धोंको देशके सीमान्त भागों—तिब्बत, चीन, जापान, ब्रह्मदेश और लंकामें खदेड़ दिया। किन्तु बौद्ध भावना भारतमें रह गई और उसने हिन्दुओं द्वारा मान्य प्रत्येक सिद्धान्तको बल दिया।

इस सम्बन्धमें भाषणकर्त्ताने जैनमतका धर्मके एक बहुत आकर्षक रूपकी तरह संक्षेपमें उल्लेख किया। उन्होंने बताया कि जैनोंका दावा है कि जैनमत बौद्धमतसे एकदम स्वतन्त्र है; वह उससे निकला हुआ नहीं है। यह मानते हुए कि उसके पवित्र शास्त्र मानवकृतित्वके परिणाम हैं, वे अन्य मतवादियोंकी तरह यह दावा नहीं करते कि उनका धर्म अपौरुषेय है। शायद सारे धर्मो में जैनमत सबसे अधिक तर्कसंगत है और उसकी सर्वाधिक ध्यान देने योग्य विशेषता जीवमात्रके प्रति उसका हार्दिक सद्भाव है।

भाषणके बाद कुछ श्रोताओंने प्रश्न पूछे और श्री गांधीने उनके उत्तर दिये तथा कार्य-वाही आभार-प्रदर्शनके बाद समाप्त हुई जिसे श्री गांधीने मुसकराते हुए इस आधारपर रोकना चाहा कि वे अभीतक कृतज्ञता प्रदर्शनके पात्र नहीं हैं। व्याख्यान मालाका दूसरा भाषण अगले शनिवार ता० ११ की शामको उसी भवनमें होगा।

[ अंग्रेजीसे ]
स्टार, १०-३-१९०५