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३१४. पढ़े-लिखे भारतीयोंका स्वास्थ्य

जब हम अन्य देशोंके शिक्षित पुरुषोंसे भारतके इसी वर्गकी तुलना करते हैं तो निराशा होती है। इंग्लैंडमें हालमें नये उदारदली मन्त्रिमण्डलके निर्माणकी योजना चल रही है। इस मन्त्रिमण्डलके मुखियोंकी आयुके अंक ऐसे हैं जिनसे अमूल्य जानकारी मिलती है। श्री ब्राइस और श्री जॉर्ज मॉर्लेकी आयु ६७ वर्षकी, लॉर्ड ब्रेसी और सर हेनरी केम्पबेल बेनरमैनकी ६९ की, अर्ल स्पेंसरकी ७० की, ड्यूक ऑफ डेवनशायरकी ७२ की और सर हेनरी फाउलरकी ७५ वर्षकी है। सर चार्ल्स डिल्ककी, जिनके नये मन्त्रिमण्डलमें शामिल होनेकी सम्भावना कम है, आयु भी ६० वर्षकी और लॉर्ड रोजबरीकी ५७ वर्षकी है। नये मन्त्रिमण्डलमें ऊपर बताये व्यक्तियोंमें से थोड़े-बहुत आयेंगे ही।

अब भारतके किसी भी क्षेत्रके पुरुषोंकी शारीरिक स्थितिकी ओर नजर डालें तो पकी आयुके, अक्षुण्ण आरोग्य और जोशके व्यक्ति क्वचित् ही दिखाई देंगे। इसका कारण खोजनेपर भारतके जलवायुका दोष बताया जायेगा; किन्तु यह बहुत कम अंशमें सत्य माना जा सकता है। हमारे पुराने जमानेके लोग पूर्ण रूपसे स्वस्थ और उत्साही रहकर लम्बा आयुष्य भोगते थे। वे लोग डील-डौलमें भी ऐसे थे कि उनकी तुलनामें आजके लोग बिलकुल दुर्बल दिखाई देते हैं। पहले भारतका जलवायु ऐसा बलप्रद था तो अब शारीरिक गठनके लिए प्रतिकूल हो, ऐसा नहीं हो सकता। सही कारण तो यही है कि हम लोग तन्दुरुस्तीके नियमोंके प्रति लापरवाह रहते हैं। शालाओं और विद्यालयोंमें जो लापरवाही शुरू होती है वह बड़ी आयु प्राप्त होनेपर भी ज्यों-की-त्यों बनी रहती है। अपने काममें, पैसे कमानेमें और जीवनको उन्नत बनानेमें हम लोग व्यस्त रहते हैं। हमें ऐसे मौकोंपर होश नहीं रहता कि अत्यधिक कार्य-बोझ उठानेसे शरीरका जीर्णशीर्ण होना स्वाभाविक है। प्रायः सभी लिखे-पढ़े भारतीयोंमें नियमित शारीरिक व्यायामकी आदत नहीं होती। मनको विश्रान्ति देनेकी आवश्यकता है इस बातसे वे बेखबर दीखते हैं। कुछ जगहोंमें क्लब और मण्डल देखनेमें आते हैं, परन्तु उनमें भाग लेनेवाले बहुत थोड़े होते हैं। कुछ लोग, जिन्हें घरमें कुछ काम नहीं करना होता, इस प्रकारके क्लबों में बातचीत या बिलियर्डकी एक दो बाजी खेलते हुए अधिक हलके मनोरंजनको ज्यादा पसन्द करते हैं। फिर तन्दुरुस्ती और सुखके महत्त्वका मूल्यांकन करनेवाले बुद्धिशाली यूरोपीयोंके समान उनके यहाँ गोष्ठियाँ, नाचके समारोह अथवा नाटक या ऐसे कोई दूसरे खेल आदि होते नहीं हैं। उनको अलग-अलग रोजगारोंकी ओर ध्यान देना पड़ता है, इसका हिसाब न लगायें तो उनकी जिन्दगी बिलकुल ही शिथिल और एक ही ढर्रेकी कही जा सकती है। ऐसी कुटेव सारी प्रजाको तबाह करनेवाली है; फिर भी यह अफसोसकी बात है कि इस कुठेवके भयानक परिणामको कोई देख नहीं पाता। खास समयतक उनको कुछ हानि प्रतीत नहीं होती, इसलिए वे अपनेको रोग-रहित मानते हैं। वे काम कर सकते हैं, खाना हजम कर सकते हैं, और उन्हें कोई कष्ट अनुभव नहीं होता इसलिए वे अपनेको तन्दुरुस्त समझते हैं। अकस्मात् उनके इस सुखकी अनुभूति बदल जाती है। वे किसी गम्भीर रोगमें घिर जाते हैं और निराश हो जाते हैं। जो हमसे पहले इस कुठेवकी शिकार हुए हैं, उनके उदाहरणसे हमें सचेत होना चाहिए। किन्तु इन उदाहरणोंसे लाभ उठानेमें हम लोग सुस्त और लापरवाह हैं। इस तौर- तरीकेके कारण शिक्षासे सम्मानित भारतीयोंमें हमें पकी उम्र के लोग दिखलाई नहीं पड़ते। यह