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नेटाल नगर-निगम विधेयक

सदस्य क्यों कहा जाये? और यदि भारतीय मजदूरको असभ्य कहना ठीक भी हो—क्योंकि उसने शर्तोंमें बँधकर उपनिवेशकी सेवा करना मंजूर किया है।—तो भी उसके वंशजोंपर यह अभिशाप क्यों लादा जाये? ऊँची श्रेणीके जिस भारतीय विद्यालयकी गवर्नर और भूतपूर्व प्रशासकने सुखद और सुन्दर शब्दोंमें प्रशंसा की है, उसमें गिरमिटिया भारतीयोंके बहुत-से बच्चे हैं। ये बच्चे किसी भी समाजका मान बढ़ा सकते हैं। ये होशियार हैं और उदार शिक्षा पाते हैं। तब क्या इनपर "असभ्य प्रजातियोंका" बिल्ला लगाना उचित है? ऐसे भारतीयों तथा अन्य भारतीयोंके बीच अन्तर करना अकारण ही होगा, क्योंकि, हम विधेयकके निर्माताओंको विश्वास दिलाते हैं कि अनेक गिरमिटिया भारतीय बिलकुल उतने ही अच्छे हैं जितने कि अपना खर्च स्वयं उठाकर स्वतन्त्र लोगोंकी हैसियतसे इस उपनिवेशमें आये हुए कुछ दूसरे भारतीय। सच तो यह है कि अगर गिरमिटिया भारतीय किसी चीजके पात्र हैं तो इसके कि उनके साथ स्वतन्त्र भारतीयोंकी अपेक्षा ज्यादा अच्छा बरताव किया जाये, क्योंकि वे इस उपनिवेशमें आनेके लिए आमन्त्रित और प्रेरित किये गये हैं और उन्होंने इसको समृद्धिशाली बनानेमें कम योग नहीं दिया है।

अब हम विधेयकको उपधारा २२ पर विचार करेंगे। स्वर्गीय श्री एस्कम्ब और स्वर्गीय सर जॉन रॉबिन्सनने राजनीतिक मताधिकार विधेयक पेश करते समय विधानसभामें उसकी सिफारिश इस आधारपर की थी कि उसका प्रभाव नगरपालिका-सम्बन्धी मताधिकारपर नहीं पड़ता है। उनकी इस घोषणाके प्रतिकूल हम देखते हैं कि संसदीय मताधिकार अधिनियम (पार्लमेंटरी फ्रैंचाइज़ ऐक्ट) की व्यवस्थाएँ नगरपालिका-सम्बन्धी मताधिकारपर लागू की जा रही हैं और यदि यह विधेयक ज्यों-का-त्यों कानूनके रूपमें स्वीकृत हो जाता है तो ऐसा कोई आदमी नगर पालिका सम्बन्धी मताधिकार प्राप्त न कर सकेगा, जो कि १८९६ के अधिनियम ८ के अन्तर्गत संसदीय मताधिकारके अयोग्य ठहरा दिया गया हो। अर्थात् जिन प्रजातियोंने अबतक प्रातिनिधिक प्रणालीका उपभोग नहीं किया, उनके सदस्य नगरपालिका-सम्बन्धी चुनावों में मतदाता होनेके अयोग्य ठहरा दिये जायेंगे, भले ही उन्होंने अपने देशमें प्रातिनिधिक नगरपालिका-सम्बन्धी प्रणालीका उपभोग क्यों न किया हो। यह सभी जानते हैं कि भारतके सभी मुख्य शहरोंमें निर्वाचित नगरपालिकाएँ मौजूद हैं और ऐसी नगरपालिकाएँ सैकड़ोंकी संख्यामें हैं और हजारों मतदाता उनके सदस्योंका निर्वाचन करते हैं। उन लोगोंको अयोग्य क्यों ठहराया जाये? भारतीय समाजने नगरपालिका-सम्बन्धी चुनावोंकी बाबत कितने भारी आत्म-संयमसे काम लिया है, इसका विधेयकके निर्माताओंने कोई खयाल नहीं किया। उन्होंने नागरिकोंकी नामावलीमें अपने नाम दर्ज करानेका लोभ संवरण किया है, और उन्हें उसका पुरस्कार दिया गया है इस विचाराधीन उपधाराके रूपमें! हम इस उपधाराको जान-बूझकर किया जानेवाला अपमान समझते हैं और हमें आशा है कि भारतीय समाजके ऐसे अपमानको विधानसभाके सदस्य अपना समर्थन प्रदान न करेंगे।

उपधारा १८२ द्वारा नगरपालिकाओंको अधिकार दिया जायेगा कि वे रंगदार लोगों द्वारा खरंजों, पैदल-पटरियों और रिक्शा गाड़ियोंके उपयोगका नियमन करनेके लिए उपनियम बना सकें। यहाँ "कुली" तथा "लशकर" शब्दोंकी व्याख्या करना आवश्यक है और यह कल्पना करना कठिन नहीं है कि अगर वर्तमान व्याख्या कायम रखी गई तो ये उपनियम अत्याचारके कैसे भयानक साधन सिद्ध हो सकते हैं। स्पष्ट है कि यह उपधारा ट्रान्सवाल सरकारकी ढुलमुल नीतिका और उस आन्दोलनका नतीजा है जो "रंगदार" लोगों द्वारा सड़ककी पटरियोंके उपयोगके बारेमें ट्रान्सवालमें अब भी चलाया जा रहा है।