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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


उपधारा २०० में यह व्यवस्था है कि शहर में रहने और काम करनेवाले असभ्य प्रजातियों के सब लोग अपना पंजीयन (रजिस्टरी) करायें। उन काफिरोंके पंजीयन करानेकी बात तो समझ में आ सकती है जो काम नहीं करते; परन्तु जो गिरमिटिया भारतीय शर्तोंसे मुक्त हो चुके हैं उनका और उनके वंशजोंका, जिनके बारेमें सामान्य शिकायत यह है कि वे बहुत ज्यादा काम करते हैं, पंजीयन कराना जरूरी क्यों हो? क्या गिरमिटिया भारतीयके क्लार्ककी नौकरी खोजनेवाले लड़केका पंजीयन किया जायेगा?

विधेयकमें और भी आपत्तिजनक उपधाराएँ हैं; मगर हम फिलहाल इस संक्षिप्त मीमांसा में उनपर ध्यान नहीं देते। सारे दक्षिण आफ्रिकामें भारतीयोंको कुचलनेका जो प्रयत्न किया जा रहा है यह विधेयक उसके बहुत से प्रमाणोंमें से केवल एक है, क्योंकि इस समय जो आन्दोलन चल रहा है वह यद्यपि सारेका-सारा नाममात्रके लिए "रंगदार" लोगोंके खिलाफ है, तथापि उसके वास्तविक लक्ष्य ब्रिटिश भारतीय हैं। जो नीति बरती जा रही है, वही है जिसका आरोप युद्धके पूर्व किम्बरलेके अपने प्रसिद्ध भाषण में लॉर्ड मिलनरने डचेतर गोरोंके सिलसिले में बोअरोंपर किया था। लॉर्ड महोदयने उसे छेड़खानीकी नीति कहा था। फिर भी डचेतर गोरे अपने ऊपर लादी जाने वाली राजनीतिक अयोग्यताओंके बावजूद बेहद खुशहाल थे और भारतीयोंकी अपेक्षा उन्हें बरदाश्त करनेमें ज्यादा समर्थ भी थे। अगर डचेतर गोरोंके प्रति व्यवहार छेड़खानीकी नीति कहा जाये तो दक्षिण आफ्रिकामें ब्रिटिश भारतीयोंके प्रति जो नीति बरती जा रही है उसे हम क्या कहेंगे? जैसा कि नेटालकी विधानसभाके एक सदस्यने एक बार कहा था, औप-निवेशिक आदर्श ऐसा होना चाहिए कि दक्षिण आफ्रिकावासी भारतीयोंके जीवनको, जितना हो सके, कष्टमय बना दिया जाये, जिससे उनका धैर्य समाप्त हो जाये और वे इस देशको छोड़कर चले जायें।

इस अग्नि परीक्षा में अब ब्रिटिश भारतीयोंका कर्त्तव्य क्या है? इसका उत्तर सीधा-सादा है। धैर्य भारतीयोंकी विशेषता है और यह तथ्य उन्हें किसी भी कारणसे नहीं भूलना चाहिए। यह उनकी मूल्यवान विरासत है और यदि वे इसके साथ केवल उद्योगकी एक बड़ी मात्रा और जोड़ दें और सम्राट्की प्रजाकी हैसियतसे अपने अधिकारोंके अपहरणका एक होकर निरन्तर विरोध करते रहें तो वे फिर भी विजय प्राप्त कर सकते हैं—भले ही उनके सामने कठिनाइयाँ क्यों न हों। उनमें अविचल पैगम्बरकी श्रद्धा होनी चहिए, जो ईश्वरमें जीवन्त विश्वाससे उत्पन्न साहसके साथ शत्रु दलका मुकाबला करनेके आदी थे और जिन्होंने अपने शिष्योंके याद दिलानेपर कि शत्रुओंकी भारी संख्याके मुकाबले वे केवल तीन ही हैं, यह मुँहतोड़ उत्तर दिया था : हम तीन नहीं, चार हैं, क्योंकि सर्वशक्तिमान प्रभु अदृश्य रूपमें हमारे साथ हैं।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १८-३-१९०५