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३२८. दुधारी गश्ती-चिट्ठी

नेटाल उपनिवेशकी कानूनकी किताबमें एक कानून[१], सन् १८९७ का अधिनियम संख्या २८ है, जिसका मंशा उन भारतीय प्रवासियोंको संरक्षण देना है जो गिरमिटिया भारतीयोंपर लागू कायदोंकी सीमामें नहीं आते। जब वह पास किया गया था तब भारतीय समाजने कहा था कि यह एक ऐसा कानून है जिसका उपयोग उत्पीड़नके साधनके रूपमें किया जा सकता है। उसका उद्देश्य, जो आवेदन करें, उनको यह प्रमाणपत्र देना कि प्रमाणपत्र प्राप्त व्यक्ति गिरमिटिया भारतीय नहीं है; ताकि उसे गिरमिटिया होने और अपने मालिकको छोड़नेके सन्देहमें गिरफ्तार न किया जाये। बहुत संभव है कि गरीब फेरीवाले और ऐसे दूसरे भारतीय वास्तवमें ऐसा प्रमाणपत्र लेकर सताये जानेसे रक्षा पा सकें। किन्तु उसका प्रभाव निःसन्देह बहुत कष्टप्रद और ईर्ष्या-द्वेषजनक हुआ है; क्योंकि यद्यपि अधिनियम केवल अनुमतिसूचक है, किन्तु वह इस तरह बरता गया है मानो बन्धनकारी हो; और अनेक भारतीय नजरबन्द किये गये हैं और उनको अधिनियम के अन्तर्गत पास पेश करने या यह सिद्ध करनेका आदेश दिया गया है कि वे गिरमिटिया नहीं हैं।

उपनिवेश सचिवके दफ्तरसे नेटालके न्यायाधीशोंके नाम जारी की गई तत्सम्बन्धी एक गश्ती-चिट्ठी के कारण इस अधिनियममें एक और उलझन जुड़ गई है। प्रमुख उपसचिव श्री सी॰ बर्ड न्यायाधीशोंको इस प्रकार लिखते हैं :

मुझे यह निवेदन करना है कि आप सन् १८९७ के अधिनियम संख्या २८ के अन्तर्गत प्रवासी-संरक्षकको पासके लिए प्रार्थनापत्र भेजते समय साथमें प्रार्थीका अधिवास प्रमाणपत्र अथवा इस आशयका वक्तव्य भी भेजें कि प्रमाणपत्र प्रस्तुत किया जा चुका है।

मंशा बिलकुल साफ है। इसका मंशा है, जो भारतीय प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियमका उल्लंघन करके उपनिवेशमें आ गये हैं, उन्हें उपर्युक्त अधिनियमके अन्तर्गत संरक्षकसे पास प्राप्त करने और इस तरह प्रवासी अधिनियमकी अवज्ञा करने से रोकना। किन्तु हमें जो खबरें मिली हैं उनके अनुसार इस गश्ती चिट्ठीसे बड़ा अनर्थ हुआ है। इसके द्वारा कुछ अपराधियोंको ढूँढ़ निकालनेके लिए एक समूचे समाजको दण्ड दिया जाता है। इससे गरीब लोगोंपर दो शिलिंग छः पेंसका निरर्थक जुर्माना भी लदता है। सन् १८९७ के अधिनियम २८ के अन्तर्गत जिन्हें पासकी जरूरत हो उन्हें सबसे पहले अधिवास प्रमाणपत्र लेना पड़ता है और इसके लिए २ शि॰ ६ पें॰ शुल्क देना जरूरी है। और जब ऐसा प्रमाणपत्र मिल जाये तब संरक्षकसे पास लेनेकी एक शिलिंग फीस और देनी पड़ती है।

अब वास्तवमें ऐसी झंझट भरी पद्धति नितान्त अनावश्यक है। सन् १८९७ के अधिनियम २८ के अन्तर्गत प्राप्त पाससे प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियमके अन्तर्गत कार्यवाही किये जानेसे कतई छुटकारा नहीं मिलता, और यदि अधिवास प्रमाणपत्र आवश्यक है तो निःसन्देह सबसे अच्छी बात यह है कि सन् १८९७ का अधिनियम २८ रद कर दिया जाये, ताकि जो भारतीय उपनिवेशमें हैं और प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियमके अन्तर्गत उपनिवेशमें रहनेके अधिकारी हैं उन्हें यदि सताये जानेका डर हो तो, वे अधिवास प्रमाणपत्र ले लें। उनसे श्री बर्ड द्वारा निर्धारित दुहरी प्रक्रियामें से गुजरनेकी उम्मीद करना उचित और न्यायपूर्ण नहीं है और हमें इसमें बहुत

  1. देखिए, खण्ड २, पृष्ठ ३८६-८७।
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