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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सन्देह है कि क्या जैसी गश्ती चिट्ठीकी ओर हमने ध्यान आकर्षित किया है वैसी गश्ती चिट्ठियों द्वारा कानूनके अमलमें बाधा डालना उचित है। सन् १८९७ के अधिनियम २८ में ऐसा कुछ नहीं है जिससे अधिवास प्रमाणपत्र प्रस्तुत करना जरूरी हो। हमें इसमें कोई सन्देह नहीं है कि यदि कोई भारतीय आग्रह करे तो वह प्रार्थनापत्र देकर कानूनकी रूसे संरक्षकको पास देनेके लिए मजबूर कर सकता है। तब फिर अधिवास प्रमाणपत्र पेश करनेकी बात जरूरी तौरपर रखना अधिनियममें एक गैरजरूरी चीज जोड़ना है। इसलिए हम विश्वास करते हैं कि या तो उक्त गश्ती चिट्ठी वापस ले ली जायेगी या सरकार सन् १८९७ के अधिनियम २८ को जल्दी ही रद कर देगी।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १-४-१९०५

३२९. भारतीयोंके प्रति सहानुभूति

जोहानिसबर्ग कांग्रिगेशनल चर्चके मुखपत्र, आउटलुकके वर्तमान अंकमें "भारतीयोंके प्रति न्याय" शीर्षकसे एक लेख प्रकाशित हुआ है। उसका सारांश हम अन्यत्र उद्धृत करते हैं। हमारा सह्योगी अनुभव करता है कि समाज के रंगदार हिस्सेको प्रभावित करनेवाले कुछ वर्त्तमान विचारोंके प्रति विरोध प्रकट करनेका समय आ गया है। वह कबूल करता है कि ब्रिटिश भारतीयोंका जिस सड़े ढंगसे विरोध किया जाता है वह घृणास्पद है। उसने विभिन्न स्थानोंमें एशियाई विरोधी कार्यवाहियोंके विवरणोंको "उनके अन्यायपूर्ण रुख और गलत वक्तव्योंके कारण तिरस्कारजनित ग्लानिसे" पढ़ा है। वह स्वीकार करता है कि कुछ लोग वास्तवमें दक्षिण आफ्रिकामें एशियाइयोंकी उपस्थितिको सार्वजनिक हितकी बाधक मानते हैं। वह आपत्तिका कारण बतलाते समय कड़ाई के साथ ईमानदारी वरतनेकी हिमायत करता है, और यह सही ही है। जब आपत्ति वास्तवमें रंग-विद्वेषपर आधारित हो तब भारतीयोंके विरुद्ध निराधार आरोप लगाना ठीक नहीं है। इसी प्रकार जब वे असुविधाजनक प्रतिस्पर्धी मात्र हों तब उनके रूपमें "सार्वजनिक स्वास्थ्यके लिए खतरा खोज निकालना ठीक नहीं होगा। दक्षिण आफ्रिकामें भारतीय स्वयं अपनी ही कमी पूरी करते हैं। नेटालकी समृद्धि बहुत कुछ गिरमिटिया मजदूरोंपर ही निर्भर है। और, जैसा कि आउटलुक कहता है, उन धन्धोंमें, जिन्हें उन्होंने खास तौरसे अपना ही बना लिया है, भारतीयोंके बिना काम नहीं चल सकता। शराबसे परहेज करने और कानूनका आदर करनेके कारण वे उत्तम नागरिक बन गये हैं। हम यह कहनेका साहस करते हैं कि यदि इस उपमहाद्वीपके लोग एशियाई प्रश्नपर तटस्थ होकर विचार करें तो अत्यन्त कठिन परिस्थितियों में भी भारतीय समाजके व्यवहारकी वे प्रशंसा ही करेंगे। ऐसे त्रासकारी कानूनोंके होते हुए भी, जिनकी ओर हम हालमें ध्यान आकृष्ट कर चुके हैं, ब्रिटिश न्याय भावनामें उनका विश्वास अडिग बना है। अन्तमें उनके साथ न्याय होगा ही। दक्षिण आफ्रिकाके सुसंस्कृत यूरोपीयोंमें भारतीयोंके मित्रोंकी संख्या लगातार बढ़ रही है। इसलिए एक दिन आयेगा जब उनकी पुकार सुनी जायेगी। इस सर्वथा सामयिक लेखके लिए हम अपने सहयोगीको धन्यवाद देते हैं। जहाँ-कहीं भी आउटलुक पढ़ा जाता है, उसकी प्रत्यक्ष ईमानदारी, उदारता और बुद्धिमत्ताका आदर होगा।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १-४-१९०५