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३३१. सत्यका प्राच्य आदर्श

लॉर्ड कर्ज़नने दीक्षान्त-अभिभाषण में घोषणा की है कि "सत्यका उच्चतम आदर्श बहुत हदतक पाश्चात्य कल्पना है", और "निःसन्देह, पाश्चात्य आचार-संहिताओंमें सत्यको, प्राच्य देशोंसे पहले ही, ऊँचा स्थान प्राप्त हो चुका था। प्राच्य देशोंमें वैसा पीछे जाकर हुआ; यहाँ तो सदासे कुटिलता और कूटनीतिक चतुरताका ही अधिक आदर होता आया है।" हम बाइसराय महोदयसे सिफारिश करते हैं कि वे सत्य और असत्यके विषयमें, प्राच्य शास्त्रों, महाकाव्यों, धार्मिक ग्रन्थों तथा नीति-सम्बन्धी अन्य रचनाओंकी निम्न शिक्षाओंपर ध्यान देनेकी कृपा करें; और यदि वे सत्यका तथा इस देशके लोगोंका कुछ भी आदर करते हों—और हमें सन्देह नहीं कि वे करते हैं—तो, भारतके वाइसराय, कलकत्ता विश्वविद्यालयके कुलपति और एक अंग्रेज सज्जनकी हैसियत से, उनके सम्मानका तकाजा है कि वे अपने निराधार और आक्रामक आक्षेपोंको वापस ले लें।

दुर्लध्य मार्गोंको लांघो; क्रोधको अक्रोधसे, और असत्यको सत्यसे जीतो।—सामवेद, अरण्यगान, अर्कपर्व।
सत्य ही जीतता है, झूठ नहीं। सत्यका ही वह मार्ग है जिसपर देव अर्थात् विद्वान लोग चलते हैं। इसी मार्ग पर चलकर, अपनी सब कामनाओंको पूर्ण कर चुकनेवाले ऋषि, उस ब्रह्ममें लीन होकर मुक्त हो जाते हैं जो सत्यका परम निधान है।[१]—मुण्डकोपनिषद्, मुण्डक ३, खण्ड १, वाक्य ६।

जब शिष्य यज्ञोपवीत धारण करके वेद पढ़ना शुरू करता है तब आचार्य उसे पहला उपदेश यह देता है :

सत्य बोलो। धर्मपर चलो। . . . सत्यसे कभी विचलित न हो।[२]—तैत्तिरीयोपनिषद् शिक्षावल्ली, ग्यारहवाँ अनुवाक, वाक्य १।

हिन्दू धर्मके अनुसार, सत्य ब्रह्मका तत्त्व है :

ब्रह्म सनातन सत्य है, अप्रमेय ज्ञान है।[३]—तैत्तिरीयोपनिषद्,‌ब्रह्मवल्ली, प्रथम अनुवाक, वाक्य १।
वाणी सत्यमें ही प्रतिष्ठित होती है। यह सब सत्यमें प्रतिष्ठित है। इसीलिए विद्वान् सत्यको ही सबसे ऊँचा बताते हैं।[४]—महानारायणोपनिषद्, २७, १।
सत्यसे बढ़कर कोई धर्म नहीं और झूठसे बढ़कर कोई पाप नहीं। वस्तुतः सत्य ही धर्मका मूल है।[५]—महाभारत।
  1. सत्यमेव जयते नानृतम्। सत्येन पन्था विततो देवयानः। येनाक्रमन्त्यृपयेह्याप्तकामा यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम्॥
  2. सत्यं वद। धर्म चर। . . . . . . . . .सत्यान्मा प्रमदितव्यम्॥
  3. सत्य ज्ञानमनन्तं ब्रह्म।
  4. वाक् सत्ये प्रतिष्ठिता। सर्व सत्ये प्रतिष्ठितम्।
  5. न हि सत्यात् परो धर्मों नानृतात् पातकं परम्।