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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 4.pdf/४५५

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सत्यका प्राच्य आदर्श

युवराज रामचन्द्रको दरबारके एक पुरोहितने सलाह दी थी कि वे अपने पिताको दिये चौदह वर्षतक वनमें रहनेके वचनसे मुकर जायें। किन्तु उसे उत्तर देते हुए अमरकीर्ति रामचन्द्र कहते हैं :

सत्य और दया, राजधर्मके अविस्मरणीय अंग हैं। इसलिए राज्यशासन तत्त्वतः सत्य ही है। सत्य ही संसारका आधार है। ऋषि और देव दोनोंने सत्यका आदर किया है। जो मनुष्य इस लोकमें सत्य बोलता है वह श्रेष्ठ और अमर पदको प्राप्त करता है। मिथ्यावादी मनुष्यसे लोग, भय और आतंकके मारे, ऐसे परे भागते हैं जैसे कि साँपसे। संसारमें धर्मका मुख्य तत्त्व सत्य है। सत्य प्रत्येक वस्तुका आधार कहा जाता है। सत्य संसारमें सर्वोपरि है। धर्मका आधार सदा सत्य ही होता है। सब वस्तुओंका आधार सत्य ही है। कोई भी वस्तु इससे ऊँची नहीं। मैं अपने वचनका पालन क्यों न करूँ अपने पिताके सत्य आदेशपर सचाईसे क्यों न चलूँ? मैं लोभ-लालच, बहकावे या अज्ञानके वश होकर या अपनी दृष्टि कलुषित हो जानेके कारण सत्यकी मर्यादाका उल्लंघन नहीं करूँगा। मैं पिताजीको दिये हुए वचनका पालन अवश्य करूँगा। मैं उन्हें वनवासका वचन दे चुका हूँ। अब में उनके आदेशका उल्लंघन करके भरतकी बात कैसे मान सकता हूँ?[] (प्रोफेसर मैक्समूलरके अंग्रेजी अनुवादसे)।—रामायण।

प्रकृतिके नियमोंमें ही सत्यका प्रकाश होता है। सब सद्गुण सत्यके और सब अवगुण असत्यके रूप हैं। भीष्मने महाभारतमें उनका वर्णन इस प्रकार किया है :

सत्य-परायणता, न्यायवर्तिता, आत्मसंयम, आडम्बरहीनता, क्षमा, नम्रता, सहिष्णुता, अनसूया, दाक्षिण्य, परोपकार, आत्मजय, दया और अहिंसा—ये तेरहों सत्यके रूप हैं।—महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय १६२, श्लोक ८ व ९।

किसी वस्तुका होना सत्य और न होना असत्य है। भीष्मने कहा है :

सत्य सनातन ब्रह्म है. . . .सब कुछ सत्यमें प्रतिष्ठित है।—महाभारत, शान्तिपर्व अध्याय १६२, श्लोक ५।
  1. सत्यमेवानृशंसं च राजवृत्तं सनातनम्।
    तस्मात् सत्यात्मकं राज्यं सत्ये लोकः प्रतिष्ठितः १०९ । १० ॥
    ऋषयश्चैव देवाश्च सत्यमेव हि मेनिरे।
    सत्यवादीहि लोकेऽस्मिन् परमं गच्छति चाक्षयम् १०९ । ११ ॥
    उद्विजन्ते यथा सर्पान्नरादनृतवादिनः।
    धर्मः सत्यं परोलोके मूलं सर्वस्य चोच्यते १०९ । १३ ॥
    सत्यमेवेश्वरी लोके सत्ये पद्मा प्रतिष्ठिता।
    सत्यमूलानि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परंपदम् १०९ । १४ ॥
    सोऽहं पितुर्नियोगंतु किमर्थै नानुपालये।
    सत्यप्रतिश्रवः सत्यं सत्येन समयीकृतम् १०९ । १६ ॥
    नैव लोभान्न मोहाद्वा न ह्यज्ञानात्तमोऽन्वितः।
    सेतुं सत्यस्य भेत्स्यामि गुरोः सत्यप्रतिश्रवः १०९ । १७ ॥
    कथं ह्महं प्रतिज्ञाय वनवासमिमं गुरौ।
    भरतस्य करिष्यामि वचो हित्वा गुरोर्वचः १०९। १० ॥