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सम्पूर्ण गांधी वाङमय
- आर्य क्षत्रियोंने बहुधा कहा है :
- मेरे मुखसे असत्य कभी नहीं निकला।
- अश्वमेध पर्व में श्रीकृष्णने कहा है :
- सत्य और धर्मका मुझमें नित्य निवास है।
- भीष्मने सत्यका बखान करते हुए उसे उच्चतम त्याग बतलाया है और कहा है :
- एक बार एक सहस्र अश्वमेध यज्ञ और सत्य एक तराजूमें तोले गये। सत्य सहस्र अश्वमेध यज्ञोंसे कहीं भारी उतरा।—महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय १६२, श्लोक २६।
- सत्यसे बढ़कर कुछ नहीं और सत्यको अन्य समस्त वस्तुओंसे पवित्र मानना चाहिए।—रामायण।
- सत्य महात्माओं और प्रभुको सदा प्रिय रहा है, और जिसकी वाणी इस जीवनमें सत्यका पालन करती है वह मृत्युके पश्चात् उच्चतम लोकोंमें जाता है। जो सत्यसे घृणा करता है उससे हम इसी प्रकार परे रहते हैं जिस प्रकार साँपके विष-भरे दाँतसे।—रामायण।
जिन गुणोंसे मनुष्यको योग और साम्यकी प्राप्ति होती है, शान्ति और संतोष मिलता है, और अपने लक्ष्यकी पूर्ति में सहायता मिलती है उनकी चर्चा श्रीकृष्णने इस प्रकार की है :
- हे अर्जुन, निर्भयता, सत्त्व शुद्धि, ज्ञानकी प्राप्तिका निरन्तर प्रयत्न, दान, इन्द्रिय दमन, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, अन्तःकरणकी सरलता, मन, वचन और कर्मकी अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शान्ति, परनिन्दा न करना, प्राणिमात्रपर दया, लोभ-लालचका न होना, कोमलता, अनुचित कार्य करनेमें लज्जा, अचपलता, तेजस्विता, क्षमा, धीरता, शुद्धता, अद्वेष और निरभिमानता, ये गुण उस व्यक्तिमें होते हैं जो देवी सम्पत्तिको प्राप्त कर लेता है।[१]—भगवद्गता, अध्याय १६, श्लोक १-३।
वाणीके तपकी व्याख्या भगवद्गीतामें इस प्रकार की गई है :
- किसीका चित्त दुखानेवाली बात न कहना, केवल सत्य, प्रिय और हितकारी वचन बोलना और वेद-शास्त्रोंका पढ़ना, वाणीका तप कहलाता है।[२]—अध्याय १७, श्लोक १५।
हिन्दू धर्मके अनुसार, ईश्वर सत्यका ही रूप है। देवोंके आवाहन करनेपर, जब ईश्वर उनके सन्मुख श्रीकृष्णके रूपमें प्रकट हुआ, तब उन्होंने उसकी स्तुति इस प्रकार की :
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अभयं सत्वसंशुद्धिर्ज्ञान योग व्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यशरच स्वाध्यायस्तप आर्जंवम्॥१॥
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुपत्वं मार्दवं हीरचापलम्॥२॥
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति, सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥३॥ - ↑
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥