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सत्यका प्राच्य आदर्श
तुम अपने वचनके सच्चे हो, लक्ष्यके सच्चे हो, तुम तिगुने सत्य हो, सत्यके तुम स्रोत हो, तुम्हारा निवास सत्यमें है, तुम सत्योंके सत्य हो, न्याय और सत्यके तुम चक्षु हो, इसलिए हे सत्यात्मा, हम आपमें आश्रय माँगते हैं।—भागवत पुराण, स्कन्ध १२, श्लोक २६।

सर विलियम जोन्सका मत है कि मनुस्मृतिका रचना-काल, यदि १५८० ई॰ पूर्व नहीं, तो १२८० ई॰ पूर्व अवश्य है। मनुने धर्मके जो दस लक्षण बताये हैं उनमें कई ऐसे हैं जो मनकी साधना और उच्चतम सत्यकी प्राप्तिके लिए अति आवश्यक हैं :[१]

धैर्य, क्षमा, आत्म-संयम, चोरी न करना, शुद्धि, इन्द्रिय-निग्रह, बुद्धि, ज्ञान, सत्य और अक्रोध, ये दस धर्मके लक्षण अर्थात् साधन हैं।[२]—मनुस्मृति, अध्याय ६, श्लोक ९२।

एक और स्थानपर उनकी संक्षेपसे चर्चा इस प्रकार की गई है :

अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी या छिपाव न करना), शुद्धि और इन्द्रिय-निग्रह, इन कार्योंका मनुने चारों वर्णोंके लिए विधान किया है।[३]—मनुस्मृति, अध्याय ६, श्लोक ६३।

जो लोग वाणी द्वारा बेईमानी करते हैं उनकी निन्दा मनुने इस प्रकार की है :

सब कार्य वाणी द्वारा नियन्त्रित होते हैं, वाणी उनका मूल है, वाणीसे उनकी उत्पत्ति होती है; और जो मनुष्य वाणीमें ईमानदार नहीं, वह सभी कामोंमें बेईमान होता है।[४]—मनुस्मृति, अध्याय ४, श्लोक २५६।

आर्योंके धर्मग्रन्थों में निरन्तर सत्यके आचरण और कर्त्तव्यके पालनका आदेश दिया गया है। देखिए :

जो मनुष्य सच्चा नहीं, या जो झूठ बोलकर धन कमाता है, या जो दूसरोंको दुःख देनेमें सुख मानता है, वह इस संसारमें कभी सुखी नहीं हो सकता। पापसे पीड़ित होकर भी पापमें प्रवृत्त नहीं होना चाहिए; ऐसा करनेवाला पाप और पापियोंका पतन शीघ्र ही प्रत्यक्ष देख लेता है। संसारमें पापाचरणका फल, गौके समान, शीघ्र प्रकट नहीं होता, परन्तु वह धीरे-धीरे पापीकी जड़तकको काट डालता है।[५]—मनुस्मृति, अध्याय ४, श्लोक १७०-१७२।
  1. धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः।
    थीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म-लक्षणम्॥

  2. धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः।
    थीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म-लक्षणम्॥,
  3. अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
  4. वाच्यार्थी नियता सर्वे वाङ्मूला वाग्विनिःसृताः।
    तांस्तु यः स्तेनयेद्वाचं स सर्वस्तेयकृन्नरः॥

  5. अधार्मिको नरो योहि यस्य चाप्यनृतं धनम्।
    हिंसारतश्च योनित्यं नेहासौ सुखमेधते॥
    न सीदन्नपि धर्मेण मनो धर्में निवेशयेत्।
    अधार्मिकाणां पापानामाशु पश्यन्विपर्ययम्॥
    नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव।
    शनैरावर्तमानस्तु कर्तुर्मूलानि कृन्तति॥