पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 4.pdf/४५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४२४
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


सत्य बोले, परन्तु प्रिय सत्य बोले। अप्रिय सत्य न बोले। साथ ही प्रिय झूठ भी न बोले। यही सनातन धर्म है।[१]—मनुस्मृति, अध्याय ४, श्लोक १३८।
मनुष्यको सदा सत्य, न्याय, प्रशंसनीय आचरण और पवित्रतामें सुख मानना चाहिए।[२]—अध्याय ४, श्लोक १७५।
चुगलखोर या झूठी गवाही देनेवालेका अन्न न खाये।[३]—अध्याय ४, श्लोक २१४।
जो योग्य लोगोंके सामने अपनी प्रशंसा सत्यके विपरीत करता है, वह संसारमें अत्यन्त नीच और पापी होता है। वह चोरोंका चोर और मनकी चोरी करनेवाला होता है।[४]—अध्याय ४, श्लोक २५५
जो भोजन केवल जीवित रहनेके लिए करता है, और जो भाषण केवल सत्य बोलनेके लिए करता है, वह सब आपत्तियोंपर विजय पा सकता है।—हितोपदेश।

वाणीके पाप चार हैं :

१. झूठ बोलना, २. परनिन्दा करना, ३. गाली देना और, ४. निष्प्रयोजन बकवाद करना।—बौद्ध धर्मकी एक शिक्षा।
सच और झूठकी टक्कर ऐसी है जैसी कि पत्थर और मिट्टीके बर्तनकी। पत्थर मिट्टी के बर्तनपर गिरेगा तो बर्तन टूट जायेगा। दोनों हालतोंमें नुकसान मिट्टीके बर्तनका ही होगा।—सिक्ख धर्मकी सीख।

साँच बरोबर तप नहीं झूठ बरोबर पाप।
जाके हिरदे साँच है ताके हिरदे आप।—कबीर।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १-४-१९०५
  1. सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।
    प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः॥

  2. सत्यधर्मार्यवृत्तेषु शौचे चैवारमत्सदा।
  3. पिशुनानृतनोश्चान्नंक्रतुविक्रयिणस्तथा।
  4. योऽन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा सत्सुभाषते।
    सपापकृत्तमो लोके स्तेन आत्मापहारकः॥