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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 4.pdf/४६

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१२. भारतकी साम्राज्य-सेवा

इंडियाके एक ताजा अंकमें भारत द्वारा साम्राज्यकी सेवाओं के सम्बन्ध में चौंका देनेवाले अंक छपे है। इन सेवाओंका क्षेत्र बहुत विस्तृत रहा है और इनका प्रारम्भ १८६० से होता है। इंडियाने लिखा है कि भारतने सन् १८६० में दो और १८६१ में एक सैन्यदल न्यूजीलैंड भेजे। सन् १८६७ में अबीसीनियाकी चढ़ाईमें भारतने सोलह पैदल सैन्यदल, पाँच रिसाले, सात इंजीनियरोंकी कम्पनियाँ, पाँच तोपखाने और सेनापति तथा अन्य कर्मचारी भेजे। सन् १८७५ में पेराककी सारी चढ़ाईमें भारतीय ही भारतीय थे। सन् १८७८ और १८७९ के अफगान युद्ध में ६०,००० और ७०,००० के बीच भारतीय सिपाही खेत रहे। सन् १८८२ में मिस्रकी चढ़ाई में पांच पैदल सैन्यदल, तीन रिसाले, इंजीनियरोंकी दो कम्पनियाँ और दो तोपखाने भेजे गये। सन् १८८५ और १८८६ में सूडान और सुआकिनकी चढ़ाइयोंमें भेजी गई सारी फौजें भारतीय थीं। इनमें से एकको छोड़कर सारा साधारण खर्च भारतने ही दिया। अफगान-युद्धके खर्च में १,८०,००,००० पौंड भारतने दिये, जब कि ग्रेट ब्रिटेनने केवल ५०,००,००० पौंड दिये थे। मिस्रकी चढ़ाईमें भारतने साधारण खर्च तो दिया ही, इसके अलावा ८,००,००० पौंड अतिरिक्त खर्च भी उसीने उठाया। सन् १८६० से पहलेवाले अफगान युद्धमें भारतने जो सहायता दी है वह भी इनके साथ जोड़ दी जानी चाहिए। उस युद्धमें हजारों भारतीय सिपाही बर्फके नीचे दबकर मर गये थे और जनरल साईको अपनी भारतीय फौजोंकी वीरताके कारण नाम कमानेका अवसर मिल गया था। इस आश्चर्यजनक विवरणमें हालकी चीनकी चढ़ाई, दक्षिण आफ्रिकाको सर जॉर्ज व्हाइट और उनके १०,००० भारतीयों द्वारा ऐन मौकेपर दी गई बहुमूल्य सहायता और सोमालीलैंडमें चल रहा वर्तमान युद्ध भी जोड़ दिये जाने चाहिए। अपने किसी पिछले अंकमें हमने भारतको "साम्राज्यकी दासी (सिन्ड्रेला[])" के रूपमें वर्णित किया है, और हम अपने पाठकोंसे पूछना चाहते हैं कि क्या हमारा किया वह वर्णन किसी भी तरह खींचा-ताना हुआ है? हमारा तो यहाँतक, खयाल है कि साम्राज्यके इतिहासमें और खास तौरपर औपनिवेशिक विस्तारके इतिहासमें हमने ऊपर जो वर्णन दिया है उसकी तुलनामें रखने लायक कहीं भी कुछ नहीं मिलेगा। अन्य उपनिवेशोंने कभी भारत-जितनी सहायता नहीं की है, या उनसे कभी इस तरह सहायता मांगी ही नहीं गई है। और यद्यपि उपनिवेशोंने गत महायुद्धमें उदारतापूर्वक जो हाथ बँटाया निःसन्देह वह साम्राज्यके हर सदस्यके लिए गौरवकी बात है, तथापि भारतने जो-कुछ दिया है और जो कुछ सहा है, उसके मुकाबले में यह सब कुछ-नहींके बराबर है। क्योंकि यह सत्य भुलाया नहीं जाना चाहिए कि अन्य उपनिवेशोंने जो-कुछ छोटीसेछोटी भी सेवा की है उसका पूरा-पूरा मुआवजा उनको दिया गया है। और अगर इजाजत हो तो हम बतायें कि आस्ट्रेलियाके मन्त्री तो यहाँतक बढ़ गये कि ब्रिटेनके खाते उन्होंने जो रकम खर्च की उसपर उन्होंने ब्याज और दलाली तक वसूल की, मानो उनके मातृदेश और आस्ट्रेलियाके बीच केवल आसामी और आढ़तियाका सम्बन्ध हो।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १५-१०-१९०३
  1. देखिए खण्ड ३, पृष्ठ ४०९।