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३३३. प्लेगसे तबाही

प्लेगने देशमें तबाही फैलाई है। इस वर्ष इसका जोर बहुत ज्यादा है। सरकार ने हाथ ढीले कर दिये हैं। लोग कायर हो गये हैं। पंजाब में तो इतना जोर है कि व्यापारको बहुत धक्का लगा है और पहले अच्छी तरह रहनेवाले लोगोंको रोग थोड़ा होता था, परन्तु अब तो वे भी उससे मुक्त नहीं रहे। फिर भी, यह भयंकर रोग अबतक देशी लोगोंमें ही फैला है। बहुतसे लोगोंकी धारणा यह है कि हमारे पाप बहुत अधिक बढ़ गये हैं; अतः प्लेग ईश्वरके प्रकोपके रूपमें आया है। इसपर टाइम्स ऑफ इंडियाके एक लेखकने यह सुझाया है कि सरकारको भारतमें एक ऐसा दिन मनाना चाहिए जिस दिन सारा देश ईश्वरसे इस रोगके अन्तके लिए स्तुति करे।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १-४-१९०५
 

३३४. प्रार्थनापत्र : नेटाल विधान-सभाको[१]

अप्रैल ७, १९०५

आपके प्रार्थी अमुक दो विधेयकोंके विषयमें इस माननीय सदनकी सेवामें उपस्थित होनेकी धृष्टता कर रहे हैं। ये विधेयक आपके विचारके लिए इसी सत्र में पेश किये जायेंगे। इनमें से एक है—"नगर-निगम सम्बन्धी कानूनको संशोधित तथा संघटित करनेवाला" विधेयक और दूसरा है—"बारूदी हथियारोंके उपयोगको नियन्त्रित करनेवाला" विधेयक। प्राथियोंका निवेदन निम्नलिखित है :

आपके प्रार्थियोंका खयाल है कि उपर्युक्त प्रथम विधेयकमें "रंगदार व्यक्ति" शब्दोंकी जो परिभाषा दी गई है वह नितान्त असन्तोषजनक है। उसमें इनका अर्थ है अन्योंके साथ-साथ कोई भी "कुली या लशकर", जिन्हें कि स्वयं परिभाषाकी आवश्यकता है। पुलिस सिपाहीके लिए यह समझना अत्यन्त कठिन होगा कि कौन कुली है, कौन लशकर; क्योंकि ये शब्द किसी विशेष प्रजातिके द्योतक नहीं हैं, बल्कि इनका प्रयोग अकुशल श्रमिकों तथा नाविकोंके लिए होता है।

आपके प्रार्थियोंके विचारमें "असभ्य प्रजातियाँ" शब्दोंकी परिभाषा भी असन्तोषजनक है और ये शब्द स्वयं उन लोगोंके लिए दुःखदायी हैं जिन्हें कि इनमें शामिल करना अभीष्ट है इसके अतिरिक्त, आपके प्रार्थी यह समझने में भी असमर्थ हैं कि गिरमिटिया भारतीयोंके बच्चे "असभ्य प्रजातियोंके" वर्गमें क्यों रखे जायें। उनमें बहुतसे अपने परिश्रम द्वारा शिक्षा और संस्कृति में बहुत ऊँचे उठ गये हैं और उपनिवेशमें कर्मचारियों या स्वतन्त्र व्यक्तियोंके रूपमें महत्त्वपूर्ण स्थानोंपर स्थित हैं।

  1. अब्दुल कादिर तथा अन्य ब्रिटिश भारतीयोंकी ओरसे इस प्रार्थनापत्रकी एक नकल बादको लॉर्ड एलगिनको भेजे गये अगस्त १५, १९०६ के प्रार्थनापत्रके साथ संलग्न की गई थी और १८-८-१९०६ के इंडियन ओपिनियनमें छपी थी।