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३३५. ट्रान्सवालके भारतीयोंपर श्री लिटिलटनका वक्तव्य

स्थानिक पत्रोंमें प्रकाशित एक तारसे मालूम होता है कि श्री लिटिलटनने एक प्रश्नके उत्तरमें कहा है, मोटन बनाम सरकारके परीक्षात्मक मुकदमेके फैसलेसे[१] ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीयोंकी स्थिति में सुधार हो गया है। पूर्ण और उचित आदरके साथ हमारा खयाल यह है कि यह वक्तव्य तथ्योंके अनुरूप नहीं है। और फिर, अगर स्थितिमें कोई राहत मिली भी है तो उसके लिए उनको या सरकारको जरा भी श्रेय क्यों मिलना चाहिए, क्योंकि वह तो सरकारके विरोध के बावजूद प्राप्त की गई है? क्या यह सच नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालयको परवानेके लिए जो आवेदन दिया गया था उसका सरकारने विरोध किया था? सरकारकी ओरसे तीन अग्रगण्य वकील पैरवी कर रहे थे और वास्तवमें तो उसने सारे भारतीय समाजको यह परीक्षात्मक मुकदमा लड़नेके लिए मजबूर कर दिया, क्योंकि यह मुकदमा तब दायर किया गया था जब कि पुराने प्रामाणिक व्यापारियोंको भी इस बिनापर व्यापार करनेका परवाना देनेसे इनकार कर दिया गया कि युद्धके ऐन पहले उनके पास परवाने नहीं थे। इस बातको काफी नहीं माना गया था कि वे युद्ध के पूर्व बस्तियोंके बाहर व्यापार करते थे।

वस्तुतः हमें युद्ध-पूर्व के दिनोंकी जबरदस्त याद दिलाई गई है। जिस प्रकारके परीक्षात्मक मुकदमेका उल्लेख श्री लिटिलटनने किया है, ठीक उसी प्रकारका मुकदमा[२] उस समय भी चला था। तब ब्रिटिश सरकारने मुकदमा लड़ने में भारतीयोंकी मदद की थी। भारतीयोंके स्वर-में-स्वर मिलाकर उसने यह दावा किया था कि १८८५ के कानून ३ के मातहत बस्तियों के बाहर भारतीयोंको व्यापार करनेकी मनाही नहीं थी। परन्तु ट्रान्सवालके ब्रिटिश हाथोंमें चले जानेके बाद एक और ही तरहकी तान छेड़ी गई। मोटनके परीक्षात्मक मुकदमेमें उसी ब्रिटिश सरकारने अपने वकीलोंको भारतीय तर्कका विरोध करनेका निर्देश किया। इस सबकी जानकारी रखते हुए भी श्री लिटिलटन परीक्षात्मक मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालयके फैसलेका श्रेय स्वयं लें तो यह एक अजीब बात है। परन्तु, जैसा कि हमने कहा है, भारतीयोंकी स्थिति बोअर शासनकालमें जैसी थी, उससे किसी भी तरह सुधरी नहीं। हाँ, वह परीक्षात्मक मुकदमेके पहले जैसी थी, उससे बेहतर जरूर हो गई है। परन्तु, ट्रान्सवालमें ब्रिटिश सरकारकी स्थापनाके बाद सर्वोच्च न्यायालयके निर्णयके अन्तर्गत भारतीय परवाना शुल्क देनेके बाद जहाँ चाहें वहाँ व्यापार कर सकते हैं। युद्ध के पूर्व ब्रिटिश सरकारके संरक्षणमें, भारतीय कोई परवाना शुल्क दिये बिना ही जहाँ चाहते, व्यापार कर सकते थे। यह सच है कि भारतीय परवाना शुल्क पेश करते थे, परन्तु बोअर सरकार उसे लेनेसे इनकार कर देती थी। भारतीय उसकी जानकारीमें और उसे सूचित करके बस्तियोंके बाहर व्यापार किया करते थे और वह ब्रिटिश विरोधके कारण उनपर मुकदमे चलाने में असमर्थ थी। इस तरह, जहाँतक व्यापारका सम्बन्ध है, ब्रिटिश भारतीयोंकी स्थिति आजकी अपेक्षा युद्धके पूर्व बेहतर थी। दूसरी बातोंमें भी स्थिति काफी बुरी है, और वह युद्धके पहलेकी स्थितिसे किसी कदर भी कम निराशाजनक नहीं है।

  1. फैसला यह था कि भारतीय व्यापारी हबीब मोटनको बस्तीके बाहर व्यापार करनेका परवाना देनेसे इनकार नहीं किया जा सकता।
  2. देखिए खण्ड ३, पृष्ठ १, ८, १०।