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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जहाँतक इस देशमें भारतीयोंके प्रवासका सम्बन्ध है, वह अनुचित रूपसे दुःखद है। युद्ध के पहले हर-किसी भारतीयको ट्रान्सवालमें प्रवेशकी स्वतन्त्रता थी। आज किसी प्रामाणिक भारतीय शरणार्थीको भी, जो यह साबित करने की स्थितिमें है कि वह पहले ट्रान्सवालका अधिवासी रह चुका है और युद्ध के पूर्व इस उपनिवेशमें बसने की अनुमतिके मूल्यके रूपमें ३ पौंडकी रकम अदा कर चुका है, उपनिवेशमें प्रवेशकी अनुमति प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। और कोई ऐसा ब्रिटिश भारतीय, जो शरणार्थी नहीं है—फिर भले ही उसकी योग्यता या दर्जा कुछ भी क्यों न हो—सम्भवतः यहाँ प्रवेश नहीं कर सकता। ऐसे व्यक्तिकी अर्जीपर सरकार विचार ही नहीं करती। और भारतीयों के प्रवासपर पूरा तो नहीं, किन्तु यह सारा प्रतिबन्ध खुले और उचित तरीकोंसे नहीं, बल्कि एक राजनीतिक अध्यादेशको अमल में लाकर लगाया गया है। पहले-पहल यह अध्यादेश ट्रान्सवालमें उन लोगोंका प्रवेश रोकने के लिए जारी किया गया था, जिनपर यह शक था कि इनका इरादा बगावत करनेका है। अब भारतीयोंको देशसे बाहर रखने के उद्देश्यसे इसका दुरुपयोग किया जा रहा है। पुराने शासन कालमें भारतीयोंकी धार्मिक भावनाओंको शायद ही कभी छेड़ा गया हो; परन्तु अब यद्यपि यह सच है कि सरकार के खिलाफ कुछ कहा नहीं जा सकता, फिर भी इस विषयमें हकीकत यह है कि आज पॉचेफस्ट्रूममें एक मसजिदके निर्माणके खिलाफ आन्दोलन चल रहा है, और यह मसजिद शहरके किसी मुख्य स्थानमें नहीं, जैसा कि लोग बताते हैं, बल्कि एक गलीमें बनेगी। हम भारतीयोंके कष्टों को और भी गिना सकते हैं और बता सकते हैं कि कैसे ब्रिटिश सरकारके व्यवहार और ब्रिटिश मन्त्रियोंके भाषणोंसे भारतीयोंके दिलों में उठी हुई तमाम आशाओंके विपरीत, भारतीयोंके सामने जीवन और मरणका संघर्ष उपस्थित हो गया है। ऐसी स्थितिमें श्री लिटिलटनका यह कहना कि ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीयोंकी स्थिति सुधर गई है, यदि कमसे कम कहा जाये तो, अत्यन्त भ्रमोत्पादक है। ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीयोंके लिए यह कहना कि वे फिरसे ब्रिटिश प्रजाकी हैसियत से उपलब्ध सब अधिकारोंका भोग करनेवाले ब्रिटिश प्रजाजन बन गये हैं, तबतक सम्भव नहीं होगा, जबतक कि १८८५ का कानून ३ और ब्रिटिश भारतीयोंसे सम्बन्ध रखनेवाले दूसरे नियम कानूनकी पुस्तक (स्टैट्यूट बुक) से निकाल नहीं दिये जाते और न्याय सम्बन्धी ब्रिटिश विचारोंके अधिक अनुरूप नहीं बनाये जाते। आज तो भारतीय सौतेला लड़का है, जो अपने माता-पितासे संरक्षण चाहता है और उसके लिए लालायित है, परन्तु वह संरक्षण उसे मिलता नहीं।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ८-४-१९०५