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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


कर्मवश या मायावश समय-समय पर देह धारण करता रहता है और अच्छे या बुरे कर्मोंसे अच्छी या बुरी योनियों में जनमता रहता है। जन्म-मरण के चक्र के बन्धनसे छूटना और ब्रह्ममें लीन होना मोक्ष है। मोक्ष पानेका साधन बहुत अच्छे काम करना, जीव मात्र पर दया करना और सत्यमय होकर रहना है। इस ऊँचाईतक जा पहुँचनेपर भी मोक्ष नहीं मिलता; क्योंकि ऐसे अच्छे कामोंका फल भोगने के लिए भी शरीर मिलता ही है। इसलिए इससे भी एक कदम आगे बढ़ना जरूरी है। कर्म करना तो अनिवार्य है ही, अब उनमें आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। उन्हें करने के लिए करें किन्तु उनके परिणाम पर नजर न रखें। थोड़े में, सब ईश्वरको अर्पण करें। हम कुछ कर रहे हैं या कर सकते हैं, स्वप्न में भी ऐसा गुमान नहीं रखना चाहिए। सबको समान भावसे देखना चाहिए। ये हैं हिन्दू धर्मके तत्त्व। हिन्दुओं में अनेक सम्प्रदाय हैं; फिर लौकिक आचारोंको लेकर कुछ फिरके बन गये हैं। उन सबका विचार इस प्रसंगपर करना जरूरी नहीं है।

परिसमाप्ति—सुननेवालोंसे प्रार्थना

यदि आपमें से किसीपर भी यह सब सुनकर अच्छा असर हुआ हो और यदि आपको ऐसा लगा हो कि हिन्दू या भारतीय, जिनके देशमें ऐसा धर्म प्रचलित है वे एकदम नीची प्रजातिके लोग नहीं होंगे, तो आप राजनीतिके मामलों में बिना उलझे मेरे देशवासियोंकी सेवा कर सकते हैं।

हम सबको प्रेमसे रहना है यह सारे धर्म सिखाते हैं। मेरा हेतु आपको धर्मका उपदेश देना नहीं था। मैं वैसा करने योग्य हूँ भी नहीं। मेरा इरादा भी नहीं है। फिर भी यदि आपके मनपर कोई अच्छा असर पड़ा हो तो उसका लाभ मेरे भाइयोंको देनेकी कृपा करें। जब उनकी निन्दा हो तो उनका पक्ष लें जो अंग्रेज जातिको शोभता है।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १५-४-१९०५

३४२. पत्र : छगनलाल गांधीको

जोहानिसबर्ग
अप्रैल १७, १९०५

श्री छगनलाल खुशालचन्द गांधी
मार्फत इन्टरनेशनल प्रिंटिंग प्रेस
फीनिक्स

चि॰ छगनलाल,

तुम्हारा पत्र मिला। तुम जिन मामलोंका उल्लेख करते हो, उनपर तुम्हें श्री किचिनसे बात कर लेनी चाहिए। चुप नहीं बैठना चाहिए। तुम देखोगे कि तुम्हारी उत्सुकतासे, जो बिलकुल वाजिब है, उन्हें बुरा नहीं लगेगा। नया इंतजाम कैसा रहा? क्या जॉब वर्क अब पूरा हो गया है, या होने को है? जबतक तुम यह नहीं बताते हमारी हिन्दी ग्राहक संख्या क्या है अथवा हिन्दी पाठक एक निश्चित संख्या की गारंटी नहीं देते तबतक हम हिन्दी-स्तंभ नहीं बढ़ा सकते। मैं एक पत्र तुम्हारे इस पत्र को पाने के पहले डाकमें छोड़ चुका हूँ। वास्तवमें उसमें मैंने यही लिखा है कि यदि पर्याप्त ग्राहक नहीं बनते तो मैं हिन्दी स्तंभों में कमी कर देना भी पसन्द करूँगा। यही बात तमिल पर लागू होती है। फिलहाल मेरे वहाँ पहुँच सकनेकी कोई सूरत नहीं है। मैं १०० पौंड भेज ही चुका हूँ। आगेके तीन महीनोंतक तुम एम॰ सी॰ कमरुद्दीन के नाम रुक्कों पर दस्तखत मत करना।