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लन्दन विश्वविद्यालय में तमिल भाषा

अनुभव करते हैं कि उनकी भी—क्योंकि वे मुट्ठी भर हैं—जानबूझ कर किये जानेवाले इस अपमानसे रक्षाकी जरूरत हैं। राज्यके कानूनोंके कारण ही वे इस अपमानके शिकार बनाये गये हैं।

शुद्ध साम्राज्यीय दृष्टिकोणसे तो हम एक कदम और आगे जा सकते हैं और कुछ पूछ सकते हैं कि क्या यह दूरदर्शितापूर्ण या उचित है कि इस भूमिके मूल निवासियोंको अनावश्यक प्रतिबन्ध लगा-लगाकर परेशान किया जाये? ब्रिटिश शासनमें किसी समाजको गतिरुद्ध अथवा अप्रगतिशील नहीं रहने दिया जाता। मूल निवासियोंको धीरे-धीरे शिक्षा दी जा रही है। यह मान लेना गलत होगा कि उनकी कोई भावनाएँ नहीं हैं, या वे अपनी स्वाभाविक स्वतन्त्रतामें कमी होनेपर दुःखी नहीं होते। हम ऑरेंज रिवर उपनिवेशकी बस्तियोंको नियन्त्रित करनेके विनियमोंकी तुलना उन नियमोंसे करते हैं जो किसी व्यवस्थित जेल में कैदियोंका नियन्त्रण करने के लिए बनाये जाते हैं। और ऐसी तुलनामें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। अगर ऑरेंज रिवर उपनिवेशकी बस्तियोंको थोड़ी-सी ज्यादा स्वतंत्रता है तो उसमें सिर्फ मात्राका अन्तर है, प्रकार का नहीं। ट्रान्सवालके आदिवासियोंका बहुत लम्बा प्रार्थनापत्र बताता है कि उनमें ब्रिटिश झंडेकी छत्रछायामें अपने अधिकारोंकी भावना जाग रही है। सच्ची राजनीतिज्ञता यह होगी कि उनकी मुनासिब जरूरतोंका पहले ही से अनुमान कर लिया जाये और वे पूर्ण कर दी जायें। ऑरेंज रिवर उपनिवेशमें तो दीख पड़ता है कि मूल निवासियोंके मनमें कोई भावना है, ऐसा माना ही नहीं जाता।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २२-४-१९०५

३४६. लन्दन विश्वविद्यालय में तमिल भाषा

लंकासे हमें एक पत्र प्राप्त हुआ है। उसमें हमसे अनुरोध किया गया है कि हम मैट्रिक तथा कला-विषयक अन्य परीक्षाओंके पाठ्यक्रममें तमिल भाषाको वैकल्पिक विषयके रूपमें स्थान देने के लिए लन्दन विश्वविद्यालयके रजिस्ट्रारको प्रार्थनापत्र भेजने के उद्देश्यसे एक सभा आयोजित करें। हम तमिल शिक्षा प्राप्त भारतीयोंका ध्यान इस मामले की ओर आकर्षित करते हैं। हमारा खयाल है कि इस विषयको हर तरहसे प्रोत्साहन देना चाहिए। तमिल शिक्षा-प्रेमियोंको एक सभा करके लन्दन विश्वविद्यालयकी बाह्य परीक्षाओंके रजिस्ट्रारके नाम भेजनेके लिए एक सीधा-सादा प्रार्थनापत्र स्वीकार कर लेनेमें कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। दुनियाके दूसरे हिस्सों में जाकर बसे हुए तमिल लोगोंने अपने प्रार्थनापत्र पहले ही भेज दिये हैं और हमें कोई कारण दिखलाई नहीं पड़ता कि दक्षिण आफ्रिकाके लोग भी वैसा ही क्यों न करें। तमिल सबसे बड़ी द्राविड़ भाषाओं में से एक है और उसका साहित्य बहुत सम्पन्न है। वह भारतकी इतालवी भाषा मानी जाती है। इसलिए वह लन्दन विश्वविद्यालय द्वारा वैकल्पिक विषयके रूपमें स्वीकार की जानेके सर्वथा योग्य है। लन्दन विश्वविद्यालय दुनियाकी सबसे उदार संस्था माना गया है और यह देखते हुए कि तमिल भाषा सम्राटकी प्रजाके करोड़ों लोगों द्वारा बोली जाती है, साम्राज्यकी राजधानीके विश्वविद्यालयके लिए उचित ही होगा कि वह तमिल भाषी आवेदकोंकी प्रार्थना स्वीकार कर ले।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २२-४-१९०५