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३५९. पत्र : छगनलाल गांधीको

२१-२४ कोर्ट चेम्बर्स
नुक्कड़, रिसिक और ऐंडर्सन स्ट्रीटस
पो॰ ऑ॰ बॉक्स ६५२२
जोहानिसबर्ग
मई ६, १९०५

[चि॰ छगनलाल,][१]

आज सारी गुजराती सामग्री भेज रहा हूँ; शायद अब और न भेजूँ। खंडेरियाने मुझे बताया कि उसने पीटर्सबर्ग-अभिनन्दनका[२] विवरण भेजा है। मैं गुजरातीमें जो सम्पादकीय उपलेख भेज रहा हूँ अगर इसके खिलाफ कुछ हो तो तुम वह भाग काट देना यानी स्थानापन्न उच्चायुक्त की झूठी तारीफकी कोई बात नहीं हो। उसका उत्तर उतना सन्तोषप्रद नहीं है जितना हो सकता था। मैं जो भेज रहा हूँ उससे यह साफ दिखेगा।

देसाईने बताया कि तुम्हारा स्वास्थ्य बहुत अच्छा नहीं है। तुम्हारे फुंसी-फोड़े हो रहे हैं। यह अक्षम्य है। जरूर भोजनकी कोई गड़बड़ी होगी। वेस्टके सादे जीवनका अनुकरण करो। इसपर जितना जोर दूँ उतना थोड़ा है। दोपहरके भोजनमें हम सब कूनेकी रोटी, मूँगफली, मक्खन और मुरब्बा ले रहे हैं। रोटी घर काट लेते हैं और दफ्तरमें ले जाते हैं और भोजन वहीं हो जाता है। अगर शहरमें भोजन करना पड़े तो तुम भी ऐसा ही कर सकते हो। मैं चाहता हूँ कि तुम बहुत संभालकर सब-कुछ करो। भूकम्प-निधिके[३] बारेमें तुम्हें गुजरातियोंसे मिलना चाहिए। वह कहीं ठप न हो जाये। यहाँ मैं जो कुछ कर सकता हूँ, कर रहा हूँ। क्या काबा अभीतक नहीं आये? श्री मुखर्जी और श्री दादाभाई दोनोंने मुझे लिखा है कि अप्रैलके बीचमें उन्हें ओपिनियनके अंक नहीं मिले।[४]. . . . . .चैकोंके सम्बन्धमें हैं. . . . . .

तुम्हारा और चि॰ मगनलालका पत्र मिला। इस बार पिछली बारसे गुजराती सामग्री दुगुनी भेज रहा हूँ। अभी और भी भेजनेकी उम्मीद है। वहाँकी तकलीफोंका तुम्हारी चिट्ठीसे अन्दाज कर सकता हूँ। मैं अपने अवकाशका बहुत-सा समय तमिलमें लगाता हूँ। इसलिए जितना चाहिए उतना नहीं कर पाता। अबसे जहाँतक बनेगा गुजरातीकी तो काफी सामग्री आजकी तरह शनिवारकी डाकसे रवाना कर दिया करूँगा। मैं जो कुछ लिखता हूँ उसे दुबारा नहीं पढ़ता, इसका ध्यान रखना। मुझे इंडियन रिव्यू भेजना। मैं उसमें से तरजुमा कर सकूँगा।

चि॰ मगनलालकी चिट्ठी पढ़कर सन्तोष हुआ। तुम लोगोंने शाक-सब्जी उगा ली है, यह अच्छा किया। कीड़े शाक-सब्जीको नुकसान तो नहीं पहुँचाते, यह लिखना। सबसे अच्छी किसकी क्यारी है? दादा सेठने अभीतक मुझे बुलाया नहीं है। अगर वे बुलायेंगे तो मैं आऊँगा।

मोहनदासके आशीर्वाद

मूल अंग्रेजी प्रतिकी फोटो-नकल (एस॰ एन॰ ४२३६) से।
  1. दफ्तरी नकलमें सरनामा नहीं है; किन्तु पत्रकी श्वारतसे यह असन्दिग्ध रूपसे प्रकट है कि यह किसको लिखा गया था।
  2. यह अभिनन्दनपत्र उच्चायुक्त को दिया गया था; "देखिए सर आर्थर लाली और ब्रिटिश भारतीय," १३-५-१९०५।
  3. देखिए "भारतमें भूकम्प," १३-५-१९०५।
  4. यहाँ से आगे शब्द अपठनीय हैं। इसके आगे दो अनुच्छेद गुजरातीमें हैं जिनका अनुवाद यहाँ दिया गया है।