सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 4.pdf/४९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

 

३६६. पत्र : एनी बेसेंटको

[जोहानिसबर्ग]
मई, १३, १९०५

श्रीमती एनी बेसेंट
सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज
बनारस सिटी

प्रिय महोदया,

इन्टरनेशनल प्रिंटिंग प्रेसके प्रबंधकोंने आपका वह पत्र मेरे पास भेजा है जो आपने अपनी भगवद्गीताको छापने के सम्बन्ध में उनको लिखा था। पुस्तकको छापने और उसमें आपकी तसवीर लगाने की सलाहकी सारी जिम्मेदारी अवश्य ही मेरे ऊपर है। मैं जानता हूँ कि मामूली तौरपर किसी लेखककी किताब उसकी अनुमति के बिना छापना उचित नहीं माना जाता। एक सज्जनने प्रस्ताव किया था कि अगर प्रबन्धक भगवद्गीताका कोई अनुवाद लागत मात्र लेकर छापें तो वे हिन्दू लड़कों और दूसरोंमें बाँटनेके लिए पुस्तक छपवा लेंगे। उन्हें इसकी जल्दी भी थी। आपके अनुवादको छापनेका सुझाव दिया गया। इस मामलेमें मेरी सलाह माँगी गई। चूँकि आपसे पूछनेका समय नहीं था, इसलिए बहुत सोच-विचार कर मैंने सलाह दी कि वे दक्षिण आफ्रिकामें प्रचारके लिए आपका अनुवाद छाप सकते हैं। मुझे लगा कि प्रबन्धकोंका उद्देश्य शुद्ध है और यह संस्करण जिन परिस्थितियोंमें प्रकाशित किया गया था उनको जाननेपर आप भी इस प्रत्यक्ष अनौचित्यकी उपेक्षा कर देंगी। किताबके प्रकाशनके साथ ही साथ सारी स्थितिको स्पष्ट करते हुए प्रबन्धक और मालिकके हस्ताक्षरोंसे आपको पत्र भेजा गया था। प्रतीत होता है, वह कहीं गुम हो गया। हम सब हैरान थे कि आपका स्वीकृति या अस्वीकृतिका पत्र क्यों नहीं आया। परन्तु आपके २७ मार्च के पत्रसे स्पष्ट है कि इसके पहले आपकी कोई सूचना क्यों नहीं मिली। तसवीरके बारेमें इतना ही कह सकता हूँ कि अगर कोई गलती हुई है तो वह आपके प्रति अत्यधिक आदर भावके कारण ही। मैंने जब तसवीर लगानेका सुझाव दिया था तब कुछ लोग इसका जो अर्थ लगा सकते हैं, वह मेरे ध्यानमें था। किन्तु फिर मैंने अनुभव किया कि जब आप जानेंगी कि पुस्तककी बहुत-सी प्रतियाँ भारतीय युवकोंको मिली हैं तब आप इस गलतीको, अगर वह गलती है तो, माफ कर देंगी। सही हो या गलत, आप जानती ही हैं, भारतमें पवित्र पुस्तकोंमें ऐसी तसवीरोंका प्रकाशन या मुद्रण असाधारण नहीं है। केवल १,००० प्रतियाँ छापी गई थीं। उनमें से शायद २०० से अधिक शेष नहीं हैं और ये अब शायद प्रति मास ५ प्रतियोंकी दरसे बाँटी या बेची जा रही हैं—सो भी सच्चे जिज्ञासुओंको।

मैंने सारी स्थिति आपके सामने रख दी है और मैंने आपकी भावनाओंके विरुद्ध जो अपराध किया है, अब उसके लिए गहरा खेद प्रकाश करना और क्षमा माँगना शेष रहता है। यदि आपके खयाल से कोई सार्वजनिक वक्तव्य देना या पुस्तककी बिक्री पूर्णतः बन्द करना या केवल तसवीरको पुस्तकमें से निकाल देना आवश्यक हो तो आपकी इच्छाओंकी पूर्ति अवश्य की जायेगी।

आपका आज्ञाकारी सेवक,

टाइप की हुई दफ्तरी अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ ४२३८) से।