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३६९. पत्र : कैखुसरू व अब्दुल हकको[१]

[जोहानिसबर्ग]
मई १३, १९०५

श्री जालभाई सोराबजी ब्रदर्स
८४, फील्ड स्ट्रीट
डर्बन
भाई कैखुसरू व अब्दुल हक,

इसके साथ ५०० पौंडकी हुंडी भेज रहा हूँ। इसे प्रेस खाते में जमा करें। बात यह है कि इतना पैसा मेरे पास अभी बच सकता है। इसीलिए मैंने यह भेजा है। मैं जानता हूँ कि इतनी रकम वहाँ रहेगी तो सेठको उसका व्याज बचेगा। उसमें से चि॰ छगनलालको जितने की जरूरत पड़े उतना दे दें बाकी जब मुझे जरूरत पड़ेगी तब मैं मँगा लूँगा। लेकिन मेरे पास जो रुपया फालतू हो उसे वहाँ रखना अधिक ठीक समझता हूँ; इसीलिए यह हुंडी भेजता हूँ।

मो॰ क॰ गांधीके सलाम

गांधीजी स्वाक्षरों में गुजरातीसे; पत्र-पुस्तिका (१९०५), सं॰ ३५।

३७०. पत्र : पारसी रुस्तमजीको

[जोहानिसबर्ग]
मई १३, १९०५

श्री रुस्तमजी जीवनजी घोरखोदू
११, खेतवाड़ी लेन
खेतवाड़ी
बम्बई
श्री सेठ पारसी रुस्तमजी,

आशा है, आप अच्छी तरह पहुँच गये होंगे।

भाई कैखुसरू और अब्दुल हकके पत्र मुझे नियमसे मिलते हैं। वे आपको पत्र लिखते ही हैं; इसलिए ज्यादा कुछ कहने लायक नहीं है।

मैं जानता हूँ आपको ओवर-ड्राफ्टपर ब्याज देना पड़ता है। फिलहाल मेरे पास थोड़ा पैसा होनेसे दुकानको ५०० पौंडकी हुंडी भेजी है।[२] उसमें से थोड़ा, करीब २५० पौंड, चि॰ छगनलालको चला जायेगा। फिर भी बाकी वहाँ जमा रहेगा। मुझे जरूरत पड़ेगी तो इसे वापस मँगा लूँगा और मेरे पास अतिरिक्त बचेगा तो और भी भेज दूँगा। आपकी छापाखानेपर वाजिब

  1. ये दोनों जालभाई सोराबजी ब्रदर्सेकी पेढ़ीके व्यवस्थापक थे। पेढ़ीके मालिक पारसी रुस्तमजी उन दिनों भारतमें थे।
  2. देखिए पिछला शीर्षक।