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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
महारानीने, जिसमें माता, नारी और रानीका अद्वितीय और सुन्दर समन्वय हुआ है, समस्त भारतीयोंके हृदय मिला दिये हैं। उनके आश्चर्यजनक शासनकालने भारतीय इतिहासपर जो छाप छोड़ी है उसके विषयमें बहुत कुछ कहना और उन बहुत-सी बातोंको बताना सरल है, जिनमें स्वर्गीया सम्राज्ञीने विवेकपूर्वक हाथ डाला था और जिनपर उनका प्रभाव पड़ा था, किन्तु क्या १८५८ की वह प्रसिद्ध घोषणा उनके समूचे शासन और चरित्रको व्यक्त नहीं करती, जो भारतका मैग्नाकार्टा और हमारे व्यवहार और महत्त्वाकांक्षाओंका उत्तम मार्गदर्शक है? उनके विषयमें यह कहा जा सकता है कि उन्होंने भारतको स्तम्भ बनाकर ब्रिटेनको एक विश्वव्यापी साम्राज्यमें बदल दिया।

विक्टोरिया भारतके प्रति सदा व्यक्तिगत और गहरी दिलचस्पी रखती थीं। इतना ही नहीं कि उनके समीपस्थ नौकर-चाकर बहुतसे भारतीय होते थे और उन्होंने हिन्दुस्तानी लिखना बोलना सीखा था (जो राज्यकी चिंताओंसे ग्रस्त व्यक्तिके लिए कोई आसान काम नहीं है) ; बल्कि वे वाइसरायसे प्रत्येक डाकसे भारतकी स्थितिका विवरण मँगाती थीं, और लॉर्ड नार्थब्रुकके नाम लिखे हुए पत्रों में से एक पत्रके निम्न अंशसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उनको भारतीय मामलोंका आन्तरिक ज्ञान प्राप्त था :

महारानीका विश्वास है कि अब अंग्रेज पहलेकी अपेक्षा भारतके देशी लोगोंके प्रति अपने व्यवहारमें अधिक सदय हैं। अब ईसाइयोंके लिए अशोभनीय इन भावनाओंका निर्मूल होना बहुत जरूरी है। उनकी सर्वत्र सबसे बड़ी इच्छा यह है कि सब वर्गोंके बीच, जो आखिरकार भगवानको दृष्टिमें समान हैं, अधिकतम प्रेम और सद्भाव हो।

"भगवानकी दृष्टिमें समान"—यही वह भावना थी जिससे प्रेरित होकर वह महान घोषणा की गई थी और साम्राज्य जिसके योग्य सिद्ध नहीं हुआ। हम यह दुःखके साथ कहते हैं और दुःखके साथ ही हमें अपने पाठकों और अधिकारियोंका ध्यान उन बहुत-सी बातोंकी ओर आकर्षित करना पड़ता है जिनमें नेक विक्टोरियाकी भावना भंग की गई है। वैसे हमने इस समय पसन्द यही किया होता कि हमारे पत्रके कमसे कम इस अंकमें ऐसी कोई बात न होती जो हमारे इस संतोष में बाधक प्रतीत होती कि हम अंग्रेजी साम्राज्यके अंग हैं।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २७-५-१९०५