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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
शासनके अन्य किसी भी विभाग में, महाराजा गायकवाड़की दूरदर्शितापूर्ण उदारता, इतनी प्रत्यक्ष नहीं जितनी कि शिक्षामें; और उसके परिणाम भी अन्यत्र कहीं इतने वास्तविक और ठोस नहीं निकले हैं। बड़ौदामें रियासतकी आयका ६.५ प्रतिशत शिक्षापर व्यय किया जाता है। इसके विपरीत, बंगालमें यह प्रतिशत १.१७, बम्बईमें १.४४, मद्रासमें १.३३, और सारे ब्रिटिश भारतमें लगभग १ है। और सारी आबादीमें शिक्षा पानेवाले बालकका प्रतिशत, बड़ौदामें ८.६, बंगालमें ४.०, बम्बई में ६.२, मद्रासमें ३.०९, और समस्त ब्रिटिश भारतमें ३ से भी कम है। बड़ौदामें शिक्षाको मदमें कुल आबादीपर प्रति व्यक्ति सात आने खर्च किये जाते हैं, जब कि ब्रिटिश भारतमें लगभग एक आना खर्च किया जाता है।

श्री दत्तकी दिलचस्पी स्वशासनकी समस्याके अतिरिक्त भारतके महान ग्राम-समाजोंको, जिन्हें स्वर्गीय सर हेनरी मेनने अपनी सजीव वर्णनशैलीमें आत्मनिर्भर गणराज्योंके रूपमें चित्रित किया है, पुनरुज्जीवित करने और कायम रखने में बहुत गहरी है। श्री दत्तने ग्रामोंको अपने प्रबन्धका नियन्त्रण दे दिया है और गाँवके मुखियाको भी कुछ अधिकार दे दिये हैं; उन्होंने गाँवके अध्यापकको उसके आसनपर पुनः प्रतिष्ठित कर दिया है और पुरानी प्रणालीके पौधेमें सच्चे निर्वाचनात्मक प्रतिनिधित्वकी कलम लगा दी है। अब गाँवकी पंचायत के सदस्य पुश्तैनी न होंगे, वे लोगों द्वारा चुने जाया करेंगे। यह प्रयोग साहसपूर्ण है; और यदि यह सफल हो गया तो यह भारतीय रियासतोंके शासनमें एक नई प्रगतिका प्रतीक बन जायेगा। और जैसा कि सर विलियम वेडरबर्नने लिखा है, सम्भव है कि ब्रिटिश भारतकी सरकारको बड़ौदाका अनुकरण करना पड़े। सर विलियम वेडरबर्नने यह भी लिखा है कि इसमें लज्जा या झिझक अनुभव करनेकी कोई जरूरत नहीं है; प्रत्युत ब्रिटिश सरकारके लिए तो यह अभिमानकी बात होनी चाहिए; क्योंकि भारतको वर्त्तमान बड़ौदा नरेश और श्री दत्त जैसे असाधारण योग्यताके शासक भी तो आखिर उसने ही दिये हैं। बड़ौदा सरीखी रियासतसे दक्षिण आफ्रिकाके हमारे पाठकोंको, अपने भारत विषयक पूर्वग्रह और भ्रान्त विचार दूर करनेमें सहायता मिलनी चाहिए। क्योंकि जिस देशमें इतने अच्छे और इतने उत्थानकारी कार्य होते हों उसे किसी भी प्रकार असभ्य अथवा अर्ध-सभ्य जंगली जातियोंसे आबाद देश नहीं कहा जा सकता।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ३-६-१९०५