४१७. जापान और रूस
जापानकी कला दिनोंदिन बढ़ती दिखाई देती है। उसने पोर्ट आर्थरका किला तोड़ा, मुकदन सर किया और दूसरी बहादुरियाँ दिखाई। ये सब उसके बादके पराक्रमके सामने फीकी पड़ जाती हैं। उसने रूसके विशाल जहाजी बेड़ेको हरा दिया, यही नहीं, अपितु उसके बड़े जल सेनाध्यक्षको घायल कर दिया और रूसका एक भी युद्धपोत नहीं छोड़ा। जापान इतनी बहादुरी दिखा सकेगा, ऐसा खयाल किसीने न किया था। बहुत-से लोग यह समझते थे कि रूसी बेड़ा सिंगापुर पहुँच जायेगा तब जापान बड़ी कठिनाईसें पड़ जायेगा। यह बात सब जानते थे कि जापानका बेड़ा कोई बहुत मजबूत बेड़ा नहीं है; क्योंकि जापानी युद्धपोत रूसी युद्धपोतोंसे संख्यामें कम थे। किन्तु ऐसा ज्ञात होता है कि जापानकी सावधानी सबसे बढ़ी चढ़ी थी। जल-सेनाध्यक्ष तोजोके जासूस बहुत चौकन्ने थे और जब रूसी बेड़ा उसके ठीक प्रहारके घेरे में आ गया तभी उसने उसपर हमला कर दिया। यह साहस छोटा-मोटा नहीं कहा जा सकता। इस साहसकी तुलना नहीं की जा सकती। किन्तु इस प्रकार काम लेनेमें जल सेनाध्यक्ष तोजोने जिस धीरज और दिमागी ठंडेपनका प्रयोग किया है उसे हम सर्वोपरि मानते हैं। इसमें सम्मान प्राप्त करने अथवा दुनियाको बहादुरी जतानेके उद्देश्यसे कुछ भी नहीं किया गया। तोजोका हेतु एक ही था और वह यह कि सही वक्तपर और सही जगह रूसको चपत लगायी जाये। यह उसने करके दिखा दिया है। और, जो रूस दो वर्ष पहले प्रायः अजेय माना जाता था वह इस समय जापानके काबू में आ गया प्रतीत होता है। यह कहा जाता है कि इस समुद्री युद्धसे जिसकी तुलना की जा सके ऐसा एक भी युद्ध तवारीख में देखने को नहीं मिलता। १६ वीं सदीमें इंग्लैंडकी एक बड़ी जीत हुई थी। स्पेनका बेड़ा अजेय था। वह इंग्लिश चैनलमें नष्ट हो गया था और अंग्रेज जल-सेनाध्यक्षकी जीत हुई थी। वह लड़ाई बड़ी भारी कही जाती है; किन्तु उसमें इंग्लैंड को दैवी सहायता मिली थी। स्पेनका बेड़ा बहुत बड़ा था, खाड़ी संकरी थी, और ऐन लड़ाईके मौकेपर ही ऐसी जोरकी आँधी चल पड़ी कि स्पेनका बेड़ा उसे बर्दाश्त नहीं कर सका। वह आँधी इंग्लैंडके बेड़ेके अनुकूल थी।
ट्रफाल्गर अन्तरीपके पास १९ वीं सदीमें नेल्सनने भारी विजय प्राप्त करके अंग्रेजी बेड़ेको प्रथम स्थान दिलाया; किन्तु उस समय आजकल जैसे मजबूत जहाज नहीं थे। उस समय इस जमानेके भयानक हथियार नहीं थे।
जापानको कोई अनपेक्षित सहायता नहीं मिली। उसका तो केवल एक पक्का निश्चय यह था कि उसे जीतना ही है। वह निश्चय उसका सच्चा मित्र सिद्ध हुआ है। हार किसे कहते हैं यह इस लड़ाई में जापानने जाना ही नहीं है। ऐसे महा कठिन पराक्रमका स्रोत क्या है? इस प्रश्नका उत्तर हमें बार-बार दुहरानेकी आवश्यकता है, और वह एक ही है—ऐक्य, स्वदेशाभिमान, मर-मिटनेकी चाह। इस संबंध में सभी जापानियों का उत्साह एकसा ही है। इसमें कोई किसीको ज्यादा नहीं मानता, और उनमें फूट-फाट कुछ नहीं है। देशकी सेवा करनेके अतिरिक्त वे और कुछ नहीं जानते। जिस देशमें उन्होंने जन्म लिया, जिन लोगोंमें वे पले, और जिनके बीच उनको जीवन बिताना पड़ा, उस देशके समृद्ध होनेपर वे स्वयं समृद्ध बनें, उस देशकी उन्नति होनेपर स्वयं उन्नत हों और उस देशको राज्यसत्ता मिलनेपर ही उसके अंशके रूपमें राज्यसत्ताका उपभोग करें, ऐसा महान उनका