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नेटाल भारतीय कांग्रेसकी सभा में भाषण

स्वदेशाभिमान रहा है। इस प्रकारके ऐक्य तथा स्वदेशाभिमानमें प्राणोंके प्रति अनासक्तिका योग है। जापानमें इस समय ऐसी स्थिति है। इस तरहकी स्थिति संसारके किसी अन्य भागमें नहीं है। मृत्युका भय तो उन लोगोंने जाना ही नहीं है; बल्कि देश सेवामें मरना हर प्रकारसे अच्छा माना है। एक दिन तो सभीको मरना है, फिर लड़ाईमें ही मरनेमें क्या हानि है? लड़ाई में नहीं जायेंगे तो घरमें बैठकर अधिक जियेंगे, यह कोई निश्चय नहीं है। कदाचित् अधिक जिये, तो भी पराजित लोगोंकी संतान बनकर रहने में क्या लाभ है? ऐसा विचार करके जापानी सरफरोश हुए हैं। जो लोग इस प्रकार अपने हाड़-मांस तथा रक्त देते हों वे रणमें अजेय हों इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है।

ये विचार किस कामके हैं? हमें इनसे क्या सीखना है? दक्षिण आफ्रिकामें जो हम तुच्छ-सी लड़ाई लड़ रहे हैं इसमें हम ऐक्य नहीं पाते हैं, फूट-फाट चलती रहती है। स्वदेशाभिमानके बदले स्वार्थ अधिक दीख पड़ता है। "मैं बच जाऊँ, दूसरे भले ही जायें", ऐसा खयाल मनमें रहता है। हमें अपने प्राण इतने प्यारे होते हैं कि हम इन प्राणोंसे मोह करते-करते ही चले जाते हैं। इस लोकमें कल्याण नहीं हो पाता तो परलोककी आशा किसे हो? हममें से ज्यादातर लोगोंकी ऐसी ही स्थिति नजर आती है। यदि हम लोग जापानके उदाहरणसे प्रेरणा लेकर उसका थोड़ा-सा भी अनुकरण कर सकें तो जापानके युद्धकी कहानी पढ़नेकी बात फलदायक होगी। वैसे तो बहुत-से तोते राम-राम रटते हैं, किन्तु इससे वे स्वर्ग नहीं पहुँच जाते। इसी तरह इसे केवल पढ़ जानेसे हमें भी कोई लाभ नहीं है।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १०-६-१९०५

४१८. नेटाल भारतीय कांग्रेसकी सभा में भाषण

नेटाल भारतीय कांग्रेसकी एक सभा डर्बनमें श्री हाजी मुहम्मद हाजी दादाकी अध्यक्षता में हुई थी। गांधीजीने उस अवसरपर भाषण करते हुए निम्न बातें कहीं :

जून १६, १९०५

मेरी सलाह है कि कांग्रेसके सदस्य हुंडामलके परवानेके मुकदमे में खर्च करनेका अधिकार कांग्रेसके मन्त्रियों को दे दें। क्योंकि मुकदमा बहुत संगीन है और यदि संघर्ष नहीं किया गया तो भविष्य में पछतानेका मौका आयेगा। श्री मदनजीत भारतमें हमारी ओरसे अच्छा आन्दोलन कर रहे हैं, इसलिए उनको मददके तौरपर पैसा भेजा जाना चाहिए।

मैंने जोहानिसबर्ग में जो भाषण[१] दिये हैं, जान पड़ता है कि कुछ लोगोंने उनका अनर्थ किया है। उन भाषणोंसे मेरा इरादा मुसलमानोंकी भावनाको ठेस पहुँचानेका नहीं था। हम लोगोंको हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीच भेद नहीं करना चाहिए। हम लोगोंको अच्छी तरह जानना चाहिए कि फुटके कारण हम अपना देश खो बैठे हैं और जापानी लोग संगठन और एकताके बलपर कितना कर सके हैं। हम अलग-अलग धर्मोके लोग हैं, किन्तु हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि हम सार्वजनिक कार्यों में एक ही हैं।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १-७-१९०५
  1. देखिए "हिन्दू धर्म," मार्च ४ और ११ एवं 'धर्मपर व्याख्यान,' अप्रैल १५, १९०५।