प्रतिबन्धक अधिनियम एकदम असफल रहा है। हम सहयोगीको याद दिलाना चाहते हैं कि गिरमिटिया मजदूरोंपर प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियम लागू नहीं होता और इस प्रकार स्वतन्त्र भारतीयोंके प्रवेश-नियन्त्रणका गिरमिटिया मजदूरोंके प्रश्नसे कोई सम्बन्ध नहीं है। विचाराधीन वर्षमें ३२९ पुरुष और १०५ स्त्रियाँ भारत लौटे। और सन् १८९१ के गिरमिटिया मजदूरोंके कानूनका संशोधन करनेवाले अधिनियमके मातहत ६४३ पुरुषों और २९६ स्त्रियोंने अपनी पाँच वर्षकी अवधि पूरी होनेपर पुन: नये शर्तनामेपर दस्तखत किये हैं। १,६५५ पुरुषों और ४५१ स्त्रियोंने ३ पौंडका व्यक्ति-कर अदा किया है और इस तरह, उपनिवेशको ६,३१८ पौण्डकी सालाना आय दी है। इतने पुरुषों और स्त्रियोंका सालाना कर अदा करना यह भी सिद्ध करता है कि स्वतन्त्र भारतीय मजदूरोंकी भी यहाँ अत्यधिक माँग है।
फिर रसोइये, हजूरिये, धोबी इत्यादि विशेष प्रकारके नौकरोंकी मांग पहलेके समान ही है। बहुतसे स्वतन्त्र भारतीय ऊँची मजदूरीपर ट्रान्सवाल चले गये हैं और अब एक मामूली रसोइया ६ पौंड प्रतिमास वेतन देनेपर भी भीतरके उपनिवेशोंमें नहीं जाता। खास प्रकारकी योग्यता रखनेवाला आदमी तो १६ पौंड मासिक तककी मांग करता है। मजदूरों और नौकरोंके वेतन इतने बढ़ जाने के कारण साधारण लोगोंका इस वर्गके स्वतन्त्र भारतीयोंको अपने घर नौकर रखना लगभग असम्भव हो गया है। गिरमिटिया मजदूर मिलें, केवल तभी इस तरहके नौकरोंको रखा जा सकता है।
इस आखिरी वाक्यसे सिद्ध है कि एक प्रकारकी गुलामी जारी हो तभी यहाँके जरूरतमन्द लोगोंको बाजारकी दरोंकी आधीसे भी कम दरोंपर नौकर मिल सकते हैं। फिर भी जो लोग अपनी सेवाएँ इतनी कम दरोंपर पाँच-पाँच वर्ष अथवा इससे भी अधिक समयके लिए देते हैं, उनको अपनी आजादीकी कीमत ३ पौंड वार्षिक कर चुका कर देनी पड़ती है।
उपनिवेशका भारतीय विवाह-विषयक कानून भी अभीतक अत्यन्त असन्तोषजनक है।
विचाराधीन वर्षमें १,०५३ विवाह दर्ज हुए, जब कि इससे पहलेवाले वर्षमें ४०३ विवाह दर्ज हुए थे। इनमें से ५२७ तो भारतीयोंके यहां पहुंचनेके बाद, उनके वितरणसे पहले दर्ज हुए थे। शेष नेटालमें दर्ज थे। इसमें अब एक सवाल खड़ा किया गया है कि यदि वधू या वरमें से कोई एक भी १८९१ के २५वें कानूनकी धारा ७१ के अनुसार अपना विवाह दर्ज करानेसे इनकार करे तो ऐसे धार्मिक विवाह जायज माने जायेंगे अथवा नहीं। इसमें शक नहीं कि अविवेकशील लोगोंमें बहुत-सी बुराइयाँ फैली हुई हैं। जैसे, वे अपने बच्चोंको शादी बहुत छोटी उम्रमें कर देते हैं। और जब वे बड़े होते हैं तब लड़कीको पतिके घर भेजनेमें बाधाएँ उपस्थित करते हैं। कभी-कभी पैसे लेकर उसे दूसरे आदमीके साथ जानेके लिए ललचाते भी हैं। और चूंकि इस धारामें धार्मिक विधिकी आवश्यकता नहीं है इसलिए पंजीयनकी हदतक इसका कोई मूल्य नहीं होता।
यह कठिनाई तबतक बनी रहेगी, जबतक विवाह विषयक कानूनका उपनिवेशके कानूनके साथ सामंजस्य स्थापित नहीं हो जाता और वर-वधूके धर्मके अनुसार हुए विवाहोंको मान्यता नहीं दे दी जाती। विवाहोंको दर्ज करानेके खिलाफ भारतीयोंके मनमें बड़ा गहरा विरोध है। वे विवाहको केवल एक इकरारनामा नहीं, बल्कि एक धार्मिक विधि मानते हैं। उनके लिए वह एक अत्यन्त पवित्र वस्तु है। बहुत-सी जातियोंमें तो विवाहका बन्धन अटूट होता है। उनमें