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पत्र : दादाभाई नौरोजीको

कि इस समय इस उपनिवेशमें भारतीयोंकी संख्या १२,००० से कम है। श्री लवडेने और भी कहा है कि नेटालके वे गिरमिटिया भारतीय जो हालमें मुक्त हुए हैं, पाॅचेफस्ट्रूम चले गये हैं और वहाँ बस गये हैं, एवं इस बातसे स्वयं पॉचेफस्ट्रमके भारतीय भी नाराज हैं। क्या माननीय सज्जन उन भारतीयोंके नाम बताने की कृपा करेंगे जो इस प्रकार इस उपनिवेशमें आ गये हैं? वह ऐसा करेंगे तो निश्चय ही इससे उनके अपने निर्वाचकों, एशियाई विरोधी पहरेदारों, की भी बड़ी सेवा होगी। क्या वे उन भारतीयोंके नाम बतानेकी भी कृपा करेंगे जिन्होंने यह शिकायत की है कि यहाँ नेटालसे भारतीयोंकी बाढ़ आ रही है? यदि वे ऐसा नहीं कर सकते तो क्या वे उन गम्भीर वक्तव्योंको, जो उन्होंने दिये हैं, वापिस लेनेका सौजन्य दिखायेंगे?

आपका, आदि,
मो॰ क॰ गांधी

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २४-६-१९०५

४२७. पत्र : दादाभाई नौरोजीको[१]

[जून २४, १९०५ के पूर्व]

सेवामें
माननीय दादाभाई नौरोजी
२२, कैनिंगटन रोड
लन्दन, द॰ पू॰
महोदय,]

मैं इसके साथ इंडियन ओपिनियनकी प्रति भेज रहा हूँ। उसके सम्पादकीयसे यह मालूम होगा कि १८८५ के कानून ३ के अन्तर्गत अब भारतीयोंके लिए जमीनी मिल्कियत हासिल करना किस हदतक मुमकिन हो गया है। सर्वोच्च न्यायालयके फैसलेके बाद वे अचल सम्पत्तिकी मिल्कियत हासिल करनेके लिए अमली रूपमें स्वतन्त्र हैं बशर्ते कि उनको कोई यूरोपीय मित्र ऐसा मिल जाये जो उनका न्यासी बन सके। मैं आपका ध्यान इस बातकी ओर इसलिए खींच रहा हूँ कि यदि वहाँ किसी कानूनका मसविदा बनाया जाये तो इस बातको तथ्य न मान लिया जाये कि १८८५ के कानून ३ के अन्तर्गत भारतीयोंका अचल सम्पत्ति रखना असम्भव है।

यहाँ जो कुछ हो रहा है उससे जान पड़ता है कि १८८५ के कानून ३ की जगह जो नया कानून बनेगा वह यथासम्भव १८८५ के कानून ३ के ढंगका होगा; अर्थात् नेटाल-सरकारका इरादा भारतीयोंको १८८५ के कानून ३ के अन्तर्गत प्राप्त अधिकारोंसे कुछ अधिक अधिकार देनेका नहीं है। इसलिए श्री लिटिलटनने जिस तरह यह कहा है कि सर्वोच्च न्यायालयके फैसलेको देखते हुए वे भारतीयोंके व्यापारिक अधिकारोंको सीमित करना मंजूर नहीं करेंगे और उन्होंने इस तरह एक रुख अपनाया है, उसी प्रकार अब उनको ऐसे किसी भी कानूनको मंजूर जो उन्होंने २४ जून

  1. मूल उपलब्ध नहीं है। हम इसे दादाभाई नौरोजीके उस पत्रसे लेकर दे रहे १९०५ को भारत-मन्त्रीको लिखा था।