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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 4.pdf/५५२

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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जा सकती। नेटाल यह निगरानी रखने में सफल हुआ है। अनेक भारतीयोंने नुकसान उठाने के बाद यह समझ लिया है कि यदि वे यह प्रमाणित न कर सके कि प्रवासी-अधिनियम के अन्तर्गत उन्हें उपनिवेशमें प्रवेश करनेका अधिकार है तो वे चार्ल्सटाउन अथवा अन्य किसी खुश्कीकी जगहसे नेटालके अंचलोंमें प्रवेश नहीं कर सकते। भारतीय किसी भी तरह यूरोपीय व्यापारको नहीं हथियाना चाहते, यह प्रमाणित करनेके लिए वे परवानोंपर हर नगरपालिकाका ऐसा नियन्त्रण स्वीकार करते हैं जिसमें नगरपालिकाको व्यापार करनेका परवाना देने या न देनेका अधिकार तो हो किन्तु आत्यन्तिक मामलोंमें उनपर सर्वोच्च न्यायालयमें पुनर्विचार हो सके। यह ठीक है कि यह कानून किसी वर्ग-विशेष के लिए नहीं होगा; बल्कि सबपर लागू होगा। किन्तु इसमें हानि क्या है? यदि सभी पक्ष मुख्य सिद्धान्तोंपर एकमत हो जायें तो यह बिना किसी झंझटके स्वीकृत हो सकता है; इससे उपनिवेशमें समय-समयपर एशियाइयोंके विरोधमें उठता रहनेवाला दूषित आन्दोलन समाप्त हो जायेगा। और भारतीयोंके मन स्थिर हो जायेंगे। हर प्रगतिशील सरकारके कानून परिवर्तनशील होते हैं। इसलिए, यदि उपर्युक्त दो उपाय काममें लाने पर उपयोगी सिद्ध न हों तो उस समय, और क्या आवश्यक है, इसपर विचार किया जा सकता है।

भारतीयोंको कोई अशोभनीय समझौता स्वीकार करनेकी जरूरत नहीं है; विशेषतः श्री लिटिलटनकी इस जोरदार घोषणाके बाद कि कोई भी ऐसी सुविधा जो उन्हें युद्ध के पहले प्राप्त थी उनसे छीनी नहीं जा सकती। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि उन्हें बिना रुकावट आने और व्यापार करनेकी स्वतन्त्रता थी। और यही वे दो मुद्दे हैं जिनको लेकर उन्होंने उपर्युक्त समझौतेकी बात चलाई है, बशर्ते कि १८८५ का अंग्रेजोंके लिए अत्यन्त अशोभनीय कानून ३ तथा वे अन्य कड़े और अनावश्यक नियम विधान-संहितासे हटा दिये जायें जिनका आर्थिक परिस्थितियोंसे कोई सम्बन्ध नहीं है। श्री ब्रॉड्रिकने[] अभी हाल में ही कहा है कि ब्रिटेनका आस्ट्रेलिया, कैनेडा और दक्षिण आफ्रिका तीनोंके साथ मिलाकर जितना व्यापार है उसकी अपेक्षा अधिक व्यापार अकेले भारतसे है और इसलिए साम्राज्य की दृष्टिसे देखनेपर ब्रिटेनके बाद भारतका ही स्थान आता है। क्या फिर भी उपनिवेशी लोग उस देशके निवासियोंको लगातार परेशान करते रहेंगे?

हमें मालूम हुआ है कि चीनी मजदूर संघ अमरीकी सरकारको झुकाने में सफल हुए हैं। लॉर्ड कर्ज़न बदला लेनेकी बात कह ही चुके हैं। तब, क्या यह समझना संभव नहीं है कि यदि भारत बदला लेनेपर उतारू हो जाये तो वह क्या कुछ कर सकता है? चीन और अमेरिका एक ही झंडे तले नहीं है, किन्तु दक्षिण आफ्रिका और भारत हैं। यदि भारत सरकार और दक्षिण आफ्रिकाकी स्थानीय सरकारोंके बीच स्थायी मनोमालिन्य उत्पन्न हो जाये और यदि लॉर्ड कर्ज़नने जो धमकी कलकत्तेमें इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिलमें सोच-समझकर दी है, वे उसको अमलमें ले आयें तो क्या यह एक दुर्भाग्यपूर्ण बात नहीं होगी? यदि उपनिवेशी लोगोंने उपर्युक्त समझौत-प्रस्तावके सीधे-सादे औचित्यको नहीं समझा तो ऐसी कोई बात होकर रहेगी।

आपका, आदि,
मो॰ क॰ गांधी

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन ८-७-१९०५।
  1. भारत-मन्त्री।