पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 4.pdf/५५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

 

४३३. पत्र : "रैंड डेली मेल" को

जोहानिसबर्ग
जून २८, १९०५

सेवामें
श्री सम्पादक
रैंड डेली मेल
महोदय,

आपने २६ तारीखके डेली मेलमें क्रूगर्सडॉर्पकी एशियाई-विरोधी सभाके सम्बन्धमें जो अग्रलेख लिखा है, उसके बारेमें शायद आप मुझे कुछ कहनेकी इजाजत दे देंगे।

यह मान लेनेके पश्चात् कि युद्धसे पहले ब्रिटिश सरकारने ब्रिटिश भारतीयोंके सम्बन्धमें कुछ वादे किये थे, आपने उन्हें सलाह दी है कि "उन्हें स्वीकार करना पड़ेगा कि उनकी स्पर्धासे बहुत-से गोरे व्यापारी व्यापारमें से निकल चुके हैं।" आपका पूरा सम्मान करते हुए भी मैं यह खयाल करनेका साहस करता हूँ कि आप भारतीय लोगोंको ऐसी बात स्वीकार करने की सलाह दे रहे हैं जो है ही नहीं। इन सभाओं में से एकमें भी, कभी, किसी ऐसे गोरे व्यापारीका कोई विश्वसनीय उदाहरण पेश नहीं किया गया जो भारतीयोंकी स्पर्धासे व्यापारमें से निकला हो। यह बात इस आक्षेपकी जाँच के लिए एक आयोगकी नियुक्तिसे ही सिद्ध की जा सकती है। इस बीच खयाल पूर्णतः भारतीयोंके इस तर्कके पक्षमें है कि उनकी स्पर्धासे "गोरे लोगोंका व्यापार नष्ट" नहीं हुआ या कोई गोरा व्यापारी "व्यापारमें से नहीं निकला।" खुद ट्रान्सवालमें ही, युद्धसे पहले भी और पीछे भी, गोरे व्यापारी अपने व्यापारमें जमे हैं। केपमें, एशियाई व्यापारियोंको व्यापारकी अधिकतम स्वतन्त्रता दे देनेपर भी, गोरे व्यापारियोंकी बहुत अधिक प्रमुखता है। नेटालके बारेमें भी, जहाँ भारतीय आबादी सबसे अधिक है, सर जेम्स हलेटने उस दिन अपनी गवाहीमें शपथपूर्वक कहा था कि भारतीय व्यापारियोंने गोरे व्यापारियोंको गम्भीर रूपसे प्रभावित नहीं किया है। मेरा निवेदन है कि यह स्पर्धा बिलकुल फायदेमन्द रही है, क्योंकि इससे जीवनकी जरूरी चीजोंका मूल्य नीचे स्तरपर कायम रहा है। मुझे यह मान लेने में कोई बाधा नहीं है कि भारतीय लोग अपने रहन-सहनकी सादगीके कारण बाजी मार ले जाते हैं, परन्तु इसकी तुलनामें, गोरे व्यापारियोंको अंग्रेजी भाषाके ज्ञान, अपने ऊँचे संगठन-कौशल और यूरोपकी थोक-फरोश पेढ़ियोंसे सीधे सम्बन्धकी अतिरिक्त सुविधाओंके कारण जो लाभ मिलते हैं उनसे उनका पलड़ा बहुत ज्यादा भारी हो जाता है।

परन्तु, महोदय, आप भारतीयोंसे जो कुछ स्वीकार कराना चाहते हैं उसे स्वीकार करनेके अतिरिक्त, वे वह सब कुछ माननेके लिए तैयार हैं जिसकी उनसे उचित रूपसे आशा की जा सकती है। वे यह स्वीकार करनेके लिए तैयार हैं कि १८८५ के कानून ३ और अन्य अनावश्यक रूपसे कठोर नियमोंके स्थानपर, सामान्य परवानोंका नियन्त्रण नगरपालिकाओंको सौंप दिया जाये। इससे परवाने मंजूर करने या नामंजूर करनेका अधिकार, स्थानीय संस्थाओंको मिल जायेगा, बशर्तें कि कुछ खास मामलोंमें उनके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सके।

परेशानीका सबसे बड़ा कारण है उनके व्यापारिक अधिकार। यदि ऊपर सुझाये गये समझौतेको मान लिया जाये तो, किसी कठिनाई और किसी विलम्बके बिना, यह परेशानी दूर की जा सकती है।