आपका खयाल यह मालूम पड़ता है कि जो भारतीय इस समय यहाँ हैं उनके "कुछ नैतिक दावे हैं, और उनका निबटारा नये कानूनसे करना पड़ेगा।" परन्तु यह खयाल तथ्योंसे मेल नहीं खाता। निःसन्देह उनका नैतिक दावा यह है कि व्यापार, सम्पत्तिके स्वामित्व और आवागमन के अधिकारका जहाँतक सम्बन्ध है, उन्हें यूरोपीयोंके बराबर रखा जाये। किन्तु आज तो, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालयने फैसला दिया है, उन्हें जहाँ चाहें वहाँ रहने और व्यापार करनेका कानूनी अधिकार प्राप्त है, और, जैसा श्री लिटिलटन और श्री ब्रॉड्रिक दोनोंने कहा है, उसको नया कानून बनाकर सीमित नहीं किया जा सकता; परन्तु फिर भी, लोकमतसे मेल बैठाने के लिए, भारतीय लोग अपने व्यापारपर, ऊपर बताई गई शर्तोंके अनुसार, सामान्य और जातिभेद रहित आधारपर पाबन्दी स्वीकार करनेके लिए तैयार हैं।
आपका, आदि,
मो॰ क॰ गांधी
- [अंग्रेजीसे]
- इंडियन ओपिनियन, ८-७-१९०५
४३४. पत्र : एम॰ एच॰ नाजरको
[जोहानिसबर्ग]
जून २९, १९०५
श्री एम॰ एच॰ नाजर
पो॰ ऑ॰ बॉक्स १८२
डर्बन
प्रिय श्री नाजर,
मैं इस पत्र के साथ १०८ पौंडका ड्राफ्ट ब्योरेके साथ भेज रहा हूँ। वह संक्षेपमें नीचे लख अनुसार है :
पौं॰ शि॰ पें॰ | |
डोमन | २९-१७-० |
सुभाव | २२-१८-० |
टी॰ महाराज | ५-१८-० |
वंगड स्वामी | १६-७-० |
दुबरी | ३३-०-० |
कुल १०८-०-६ |
अन्य दावोंकी रकमें अभीतक प्राप्त नहीं हुई हैं। सुरम स्वामीके वकालतनामेका पता मुझे नहीं चल पाया है और न वेरा स्वामीके वकालतनामेका ही। वन्दीथुमुका वकालतनामा आयोगके पास भेज दिया गया है; परन्तु वे इस दावेको ढूँढ नहीं पाये हैं। क्या आप बता सकते हैं कि उस व्यक्तिको पहले कितनी रकम मिली? यदि आप ऐसा कर पाये तो मैं उस दावेकी रकम वसूल करनेमें समर्थ हूँगा।