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लेडीस्मिथके भारतीय

है। हम यह नहीं कहते कि भारतीय कम वेतन स्वीकार ही नहीं करते। सच तो यह है कि वे अकसर बहुत थोड़ा वेतन स्वीकार कर लिया करते है। परन्तु जब कोई बात बहुत बढ़ाचढ़ाकर कही जाती है तो हमें उसका प्रतिवाद करना ही पड़ता है। क्योंकि, उपनिवेशमें भारतीयोंके प्रति पहले ही काफी दुर्भाव भरा पड़ा है। ऐसी गलत बातोंसे वह और भी बढ़ जाता है। भारतीयोंकी आदतें सीधी-सादी और रहन-सहन कम खर्चीला है। इसलिए वे थोड़े वेतनमें भी सन्तोष मान लेते हैं। फिर, हमारी समझमें नहीं आता कि जहाँ इतनी अधिक होड़ है, और सबके लिए खुली होड़ है, वहाँ वेतनके बारेमें किसीको क्यों शिकायत हो। हम यह स्वीकार करनेको तैयार हैं कि भारतीय दूकानें—बहुतसी, सब नहीं—यूरोपीय दूकानोंकी अपेक्षा अधिक समयतक खुली रहती हैं। परन्तु यह कहना तो सरासर गलत है कि वे सुबह पांच बजेसे लेकर रातके नौ-नौ बजेतक खुली रहती हैं। और, जहाँतक ऐतिहासिक शहर लेडीस्मिथके एशियाई बन जानेका डर है, क्या हम महापौर महोदयको याद दिलायें कि अगर सर जॉर्ज व्हाइटका प्रमाणपत्र सही है तो उसे बोअरोंके हाथमें जानेसे—चाहे वह कितने ही थोड़े समयके लिए क्यों न हो—प्रभुसिंह[१] नामक अकेले एक भारतीयकी बहादुरीने बचाया था। वह प्रभुसिंह ही था जो अपनी जानको खतरे में डालकर एक पेड़पर चढ़कर बैठ गया था, और ज्यों ही अम्बुलवाना टेकड़ीपर बोअर तोप दागी जाती, वह घंटा बजाकर उसकी सूचना दिया करता था। प्रभुसिंहका यह काम इतना महत्त्वपूर्ण माना गया कि सर जॉर्जने इसका खास तौरपर उल्लेख किया और लेडी कर्जनने उसे विशेष मान्यता दी और इनामके तौरपर उन्होंने उसके लिए एक चोगा भेजा, ताकि वह डर्बनमें उसे सार्वजनिक रूपसे भेंट किया जाये। इसलिए श्री स्पार्क्सके मुंहसे यह ताना शोभा नहीं देता। परन्तु जहाँ लेडीस्मिथके महापौर और वहाँके व्यापार-संघके अन्य सदस्योंके शब्द हमारी रायमें अनुचित हैं, वहाँ लेडीस्मिथके ब्रिटिश भारतीय व्यापारियों और दूकानदारोंको भी हम चेतावनी देना चाहते हैं । पहले श्री स्पार्क्सने, और बादमें इतनी अच्छी तरह और सौम्य भाषामें परवाना अधिकारी श्री जी० डब्ल्यू० लाइन्सने, भारतीयोंके यूरोपीय दूकानदारोंकी अपेक्षा अधिक समयतक दूकानें खुली रखनेकी जो शिकायत की, उसके प्रति हम अपनी सहानुभूति प्रकट किये बिना नहीं रह सकते। श्री उमर एक व्यापारी है। उनका यह कहना वाजिब है कि भारतीयोंके और यूरोपीयोंके व्यापारमें अन्तर है। भारतीय व्यापारियोंके ग्राहक ऐसे वर्गके लोग है, जिनके लिए अधिक समयतक दूकानें खुली रखना जरूरी होता है। परन्तु इसमें कोई शक नहीं कि इस मामले में बीचका कोई रास्ता निकल सकता है। और यूरोपीय दूकानदारोंकी मांगपर जरूर उचित विचार होना चाहिए। ऐसी बातोंमें, और जहाँ समस्त समाजकी भलाईका सवाल हो वहाँ, हमें तमाम उचित सुझावों और सलाहोंका, बिना किसी दबावके, अवश्य स्वागत करना चाहिए। यह बिलकुल सम्भव है कि दूकानें आम तौरपर किस समयसे किस समयतक खुली रहें, इस बारेमें कानून बन जाये। परन्तु इससे कहीं अधिक शोभाजनक और लाभदायक यह होगा कि भारतीय व्यापारी खुद ही इस विषयमें पहल करके आवश्यक सुधार कर लें। तब हम जाहिर कर सकेंगे कि जब-कभी किसी वाजिब शिकायतकी तरफ हमारा ध्यान दिलाया जाता है, हम उसे दुरुस्त करनेके लिए और यूरोपीयोंके साथ सहयोग करनेके लिए तैयार रहते हैं। इसलिए श्री लाइन्ससे मिलनेवाले भारतीयोंने उन्हें जो वचन दिया है कि वे उनके मध्यमार्गीय प्रस्तावपर विचार करेंगे, अवश्य ही उसका अच्छा परिणाम होगा, ऐसा हमारा विश्वास है।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २९-१०-१९०३
  1. गांधीजीने इस घटनाका वर्णन दक्षिण आफ्रिकाका सत्याग्रह, नवाँ अध्याय पृष्ठ १०३-४ में किया है।