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२३. ट्रान्सवालके "बाजार"

ट्रान्सवालमें रहनेवाले ब्रिटिश भारतीय दूकानदारों और व्यापारियोंको पृथक बस्तियोंमें (जिनको बाजारका गलत नाम दिया गया है) चले जानेकी जो सूचनाएँ मिली है, उनकी मियाद आगामी ३१ दिसम्बरको समाप्त होती है। प्रतीत होता है कि सरकारके एशियाई मुहकमे में कोई आसुरी प्रतिभा काम कर रही है। भिन्न-भिन्न शहरोंके मजिस्ट्रेटोंने अर्जदारोंको बाड़े देनेके बारेमें जो सूचनाएँ जारी की है उन्हें हमने देखा है। जमीनें देनेके इन प्रस्तावोंमें इतनी कड़ी शर्ते जुड़ी हुई हैं कि उन्हें देखकर हमें यही कहना पड़ता है कि वर्तमान कानून में भारतीयोंको जो-कुछ थोड़ा-बहुत दिया गया है, उससे भी उन्हें वंचित करनेका जानबूझकर प्रयत्न किया जा रहा है। हमारी समझमें नहीं आता कि उपनिवेशकी सरकारकी तरफसे नहीं, तो उसके नामसे, व्यापारमें भारतीयोंके प्रति ऐसी तुच्छ ईर्ष्या कभी पैदा ही क्यों होनी चाहिए। इन सूचनाओंमें से एकमें लिखा है:

अगर आप कोई खास बाड़े चाहते हैं तो अपनी अर्जीमें आपको लिखना चाहिए कि आपको ये बाड़े क्यों चाहिए। अगर इन बाड़ोंके पट्टेपर आपका कोई विशेष हक हो तो उसका भी उल्लेख कीजिए। आपको याद रखना है कि मैं ऐसे किसी आदमीको बाड़े नहीं दे सकता, जो वास्तवमें शहरमें नहीं रहता या व्यापार नहीं कर रहा है, और जिसको प्रत्यक्ष रहने या व्यापारके लिए इन बाड़ोंकी जरूरत नहीं है, और रहने अथवा व्यापारके लिए ठीक जितने बाड़ोंकी जरूरत होगी उससे अधिक भी नहीं दिये जायेंगे।

हमें याद नहीं पड़ता कि ऐसी 'न खाये न खाने दे' वाली नीति कभी पिछली गणराज्य सरकारके जमानेमें भी रही हो। हम आशा करते हैं कि इन तथाकथित बाजारोंमें दी जानेवाली जमीनोंका लालच चाहे कितना भी क्यों न हो, ट्रान्सवालके भारतीय तबतक इनसे कोई वास्ता नहीं रखेंगे जबतक, लॉर्ड मिलनरने जिस कानूनके बननेका वचन दिया है, वह बन नहीं जाता। परन्तु, किसी भी हालतमें कोई अर्जदार ज़मीनकी जरूरतका कारण क्यों बताये? कानूनके अनुसार निर्धारित स्थानोंमें भारतीय बिना प्रतिबन्धोंके जमीनें रख सकते हैं। तब अगर कोई अर्जदार उन बाजारोंमें जमीन लेना चाहता है तो उसे वह क्यों नहीं मिल सकती? फिर, किसी अर्जदारपर उसके रहने और व्यापारके लिए जितनी जमीनकी जरूरत हो केवल उतनी ले सकनेकी शर्त क्यों? क्या इसका अर्थ हम यह समझें कि इन जमीनोंके पट्टेदारोंको अपने हिस्से दूसरे किसीको किरायेपर देनेका हक नहीं होगा, और उन्हें खुद हमेशा उनपर रहना होगा, नहीं तो उनके पट्टे छीन लिये जायेंगे? फिर इन जमीनोंके पट्टे केवल उन्हींको क्यों दिये जायेंगे जो इन शहरोंमें रहते या व्यापार करते हैं? पिछली हुकूमतके जमाने में हर पृथक बस्तीमें ऐसे मालिक और पट्टेदार थे, जो अपनी खुद को जमीनोंपर नहीं रहते थे। उन्हें जिस तरह चाहें इनको बरतनेका अधिकार था। वे इन्हें दूसरे व्यापारियोंको किरायेपर दे सकते थे और अनेक जमीनें रख सकते थे। तब ब्रिटिश हुकूमतमें उनकी यह आजादी क्यों छीनी जा रही है? लॉर्ड मिलनरका आश्वासन है कि सरकारके दिलमें ब्रिटिश भारतीयोंके प्रति कोई दुर्भाव नहीं है और वह उन्हें केवल समानता और न्यायपूर्वक ही नहीं, उदारतापूर्वक भी