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ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय

असीमित अधिकार देता है; किन्तु उनके इस अधिकारके गिर्द, शहरसे बहुत दूरकी बस्तियोंके सम्बन्धमें, जहाँ व्यापार करना अत्यन्त असंभव और रहना बहुत खतरनाक होगा, अत्यन्त परेशान करनेवाली शर्तोंकी बाधाएँ खड़ी कर दी गई हैं। जो शर्तें लगाई गई हैं, उनकी हद दर्जेकी कठोरता समझनेके लिए यह तथ्य ध्यानमें रखना होगा कि ये बाड़े महज जमीनके खाली टुकड़े हैं। पट्टेदारोंको इनकी पैमाइशकी फीस और किराया ही नहीं देना है, बल्कि उन्हें इनके ऊपर अपने मकान-दूकान भी बनाने हैं। तभी वे इन बाड़ोंको अपने निवास या व्यापारके लिए ले सकते हैं, और वे केवल ऐसे ही कामोंके लिए काफी होंगे, दूसरे कामोंके लिए नहीं। सरकार यह आशा कैसे करती है कि प्रत्येक भारतीय पट्टा ले लेगा, उसपर बाड़ा बना लेगा और शायद उसे किरायेपर न उठा सकनेपर भी वहाँ रहेगा। यह बात समझना बहुत कठिन है। सूचनामें दी गई हास्यास्पद शर्तोंका पालन किया जा सके, इसके लिए प्रत्येक भारतीयको विशाल साधन-सम्पन्न व्यक्ति होना आवश्यक है। किन्तु दुर्भाग्यसे वह ऐसा है नहीं। फिर यदि वह सुन्दर इमारत नहीं खड़ी कर सकता, या केवल टीनकी खोली खड़ी कर लेता है, तो दोष उसके सिरपर मढ़ा जायेगा और वह इसलिए घृणा और तिरस्कारका पात्र बनाया जायेगा, कि वह महज़ खोलियोंमें रहता है, यद्यपि स्थिति बिलकुल उसकी उत्पन्न की हुई नहीं, बल्कि सरकारकी उत्पन्न की हुई होगी। ट्रान्सवालमें भी कई स्थानोंमें न्यूनाधिक इसी भाषामें ब्रिटिश भारतीयोंको सूचनाएँ भेजी गई हैं। उनमें दी गई शर्तें लगानेमें परमश्रेष्ठ गवर्नर महोदयका कोई हाथ है, इसमें हमें बहुत अधिक सन्देह है। वस्तुतः यह देखते हुए कि प्रत्येक सूचनाके शब्द दूसरीसे भिन्न हैं, सत्य बिलकुल स्पष्ट हो जाता है। अत: यह प्रतीत होता है कि मजिस्ट्रेट संभवतः प्रधान कार्यालयसे प्राप्त बहुत ही सामान्य निर्देशोंके आधारपर अपने आप ही यह कार्रवाई कर रहे हैं। यदि ऐसी बात है तो इससे एक बार फिर हमने जो स्थिति ग्रहण की है उसका औचित्य सिद्ध हो जाता है। वह स्थिति यह है—भारतीयोंके सम्बन्ध में कोई सम्बद्ध निश्चित नीति नहीं है और वे न्यूनाधिक मजिस्ट्रेटों या अन्य अफसरोंकी दयापर निर्भर हैं, जो भारतीयोंके प्रति या विरुद्ध, अपने पक्षपातके अनुपातसे, नरम या कड़ा व्यवहार करते हैं। ऐसी स्थिति अधिक दिन नहीं टिक सकती; अत: आशा की जाती है कि सर आर्थर लॉली[१], जिनका हृदय विशाल है, अपने बहुविध कर्तव्योंसे कुछ समय बचायेंगे और इस मामले में स्वयं दिलचस्पी लेंगे। भारतीय गत दो वर्षसे अनिश्चय और दुविधाको अवस्थामें रहनेके लिए विवश हो रहे हैं। उनको अपने दर्जेकी स्पष्ट व्याख्याकी आशा रखनेका अधिकार है। इस बीच, जैसा गतांकमें कह चुके हैं, हम विश्वास करते हैं कि ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय धैर्यपूर्वक घटनाओंकी प्रतीक्षा करेंगे और बाजारोंसे कोई सरोकार रखनेसे इनकार कर देंगे।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ५-११-१९०३
  1. लेफ्टिनेंट गवर्नर।