यद्यपि प्रामाणिक संख्या बतलाना कठिन है, फिर भी ऐसा अनुमान भली प्रकार किया जा सकता है कि ५० प्रतिशतसे अधिक परवानेदार प्रथम श्रेणीमें आयेंगे।
उनमें से बहुतसे दस या इससे भी अधिक वर्षोंसे व्यापार कर रहे हैं, उन्होंने जिन दूकानोंको सजा रखा है, उनके पट्टे वे बड़ी-बड़ी मियादोंके लिए लिये हुए है, और वे बड़ी मात्रामें मालका आयात करते हैं, क्योंकि उनके ग्राहक गोरे और काफ़िर दोनों हैं। क्या उन्हें वर्षकी समाप्तिपर बस्तियोंमें जाना पड़ेगा; यद्यपि गणराज्यके समयमें श्री चेम्बरलेन उन्हींके लिए इतने प्रयत्नपूर्वक लड़े थे, और उन्होंने सफलता भी प्राप्त की थी?
उन्हें परवानोंके बिना बस्तियोंसे बाहर व्यापार करने दिया जाता था, क्योंकि श्री क्रूगरके[१] लिए ब्रिटिश सरकार बहुत बलवान सिद्ध हुई थी। और, अब उन कुछ भाग्यशाली भारतीयोंके साथ असाधारण व्यवहार क्यों किया जाये, जिन्होंने बोअर-सरकारसे परवाने ले लिये थे? निश्चय ही, उनका मामला, प्रथम श्रेणीके उन अभागे लोगोंसे किसी भी प्रकार अधिक मजबूत नहीं है, जिनको अब बस्तियोंमें जानेकी सूचना दी जा चुकी है।
इन कुछ लोगोंको युद्धसे पहले परवाने क्यों मिल गये थे, इसका कारण निम्नलिखित है:
जब ब्रिटिश सरकारके साथ लम्बे-चौड़े पत्र-व्यवहारके बाद बोअर-सरकारने अनुभव कर लिया कि वह ब्रिटिश भारतीयोंको बस्तियोंमें नहीं ढकेल सकती तब १८९९ में यह निश्चय किया गया कि उस वर्षसे पहले जो ब्रिटिश भारतीय बस्तियोंसे बाहर व्यापार कर रहे थे, उन्हें परवाने दे दिये जायें। उस समय जो समर्थ थे उन्होंने तो परवाने ले लिये, परन्तु जो १८९८ में कुछ समयके लिए ट्रान्सवालसे बाहर चले गये थे वे रह गये; और उस समय भी सबको परवाने एक साथ नहीं दिये गये थे।
बोअर-सरकारका काम बड़ा सुस्त था। परवाना-अधिकारी फुर्तीसे या हिदायतोंके अनुसार कदाचित् ही काम करते थे। फल यह हुआ कि दूर-दूरके कस्बोंमें प्रार्थनापत्र देनेपर भी बहुतसे भारतीयोंको परवाने नहीं मिल पाये। परन्तु फिर भी उनके व्यापारमें विघ्न नहीं डाला गया।
तो क्या अब उनको, किसी कसूरके बिना, बस्तियोंसे बाहरके नगरोंमें व्यापार करनेके अधिकारसे वंचित कर दिया जायेगा?
अब दूसरी श्रेणीके लोगोंके परवानोंपर विचार करना शेष रह गया।
इन लोगोंको, उपनिवेशपर ब्रिटिश अधिकार हो जानेके पश्चात्, बिना किसी शर्तके परवाने मिले थे। लॉर्ड मिलनरके ही खरीतेमें लिखा है कि १८८५ के कानून ३ को[२] लागू करनेका विचार इसी वर्ष किया गया था। पिछले वर्ष, पिछली सरकारके एशियाई-विरोधी अब्रिटिश कानूनोंपर अमल करनेका विचारतक किसीके मनमें नहीं आया था। ये लोग शरणार्थी थे, उनमें से बहुत-से युद्धसे पहले किसी-न-किसी स्थानपर व्यापार भी करते थे, और ब्रिटिश अधिकारी, जो स्थानीय विद्वेष-भावनामें शिक्षित नहीं हुए थे, स्वभावतः यह नहीं समझ सकते थे कि जब विदेशियोंतक को व्यापार करनेके परवाने दिये जा रहे हैं तब ब्रिटिश प्रजाजनोंको क्यों न दिये जायें?
यह काम एशियाई दफ्तरके लिए ही सुरक्षित था कि वह एशियाई-विरोधी कानूनोंको खोदकर निकाले और उन्हें लागू करनेका सुझाव दे। स्वार्थी लोगोंने ब्रिटिश भारतीयोंके विरुद्ध