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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

भारतीयोंकी आशाएँ पूरी नहीं होनेवाली हैं, और एक भारतीयके नामपर जमीन दर्ज नहीं हो सकती, तब केवल यही एक मार्ग रह गया कि वह किसी गोरेके नाम दर्ज करा दी जाये। इसलिए उस गरीबने एक गोरे मित्रसे प्रार्थना की कि वह जमीन अपने नामपर करवा ले, ताकि जब जमीन बिके तो उसमें उसे नुकसान न उठाना पड़े। उस गोरे मित्रने यह मंजूर कर लिया और इस तरह मामला समाप्त हो गया। हमें तो इससे दुःख हुआ; परन्तु अगर इस हालतपर हमारे सहयोगीको सन्तोष होता है तो उसे वह सन्तोष मुबारक हो। हम तो केवल इतना ही कहेंगे कि यह अत्यन्त अब्रिटिश है। किन्तु इस छोटेसे प्रश्नके प्रति जो रुख प्रकट हुआ है उसपर हमें आश्चर्य नहीं है, क्योंकि इसी लेखमें लिखा है कि ईस्ट रैंडके लोगोंका आगे यह कार्यक्रम होगा: (१) शहरके बाहर बाजारों को छोड़कर अन्यत्र कोई एशियाई व्यापार नहीं होगा, जैसी कि कानूनकी आज्ञा है। (२) किसी जमीन या स्थावर सम्पत्तिका स्वामित्व एशियाइयोंको न हो, इस सम्बन्धमें वर्तमान कानूनका पूरा-पूरा समर्थन किया जायेगा। (३) तमाम एशियाइयोंको काफिरोंके समान माना जायेगा। अपने सहयोगीकी स्पष्टवादिताकी हमने सदैव सराहना की है। इस मामलेमें भी हमें उसके वही गुण दिखलाई पड़ते हैं। वह कटु सत्य कहने में संकोच नहीं करता। सरकारसे मांग की जानेवाली है कि वह शहरोंके बाहर बाजार बना दे। सच पूछिए तो इस बातकी आवश्यकता ही नहीं है, क्योंकि जहाँ जगहोंका चुनाव हो गया है वहाँ सरकारने पहलेसे ही ऐसा कर दिया है। हम नहीं समझते कि ईस्ट रैंडका कोई कट्टरतम व्यक्ति भी, स्वयं अपनी दृष्टिसे इनसे अधिक उपयुक्त जगहोंका चुनाव कर सकता था। ये जगहें ऐसे हिस्सोंमें है, जहाँ व्यापार लगभग असम्भव और निवास खतरोंसे भरा है। दूसरी मांग भी अनावश्यक ही है, क्योंकि सरकार वर्तमान कानूनके पालनमें जरा भी रू-रियायत करना नहीं चाहती। उलटे, उसका तो रुख नियन्त्रणोंको जितना भी सख्त बनाया जा सके उतना सख्त बनानेका है। तीसरी मांग सबसे अधिक स्पष्ट है। और अगर ब्रिटिश भारतीयोंके दर्जेका सवाल अनिश्चित कालके लिए ताकमें रखा जा सका तो यह प्रश्न हमेशाके लिए हल है। सारे एशियाइयोंको एक ही स्तरपर ले आना बहुत सरल उपाय है। परन्तु मुश्किल तो यह है कि ट्रान्सवालकी सरकार पुरानी सभी घोषणाओंको चाहे कितना ही पैरों तले कुचलनेकी इच्छा करे, और तैयार हो जाये, हमारा अनुमान है कि हमारे सहयोगी द्वारा सुझाये गये मार्गका अवलम्बन करनेमें उसे भी हिचक होगी। उसका अर्थ होगा सन् १८८५ के कानून ३ को रद कर देना और उसके स्थानपर ऐसा कानून बनाना, जो उसने पिछली हुकूमतको कभी पास नहीं करने दिया। भूतपूर्व राष्ट्रपति क्रूगरने कई बार प्रयत्न किया कि लन्दन-समझौतेकी १४ वीं धाराको इस तरह बदल दिया जाये कि "दक्षिण आफ्रिकाके वतनियोंमें" तमाम एशियाइयोंको भी शामिल कर लिया जाये, और चाहा कि उसपर स्वर्गीया सम्राज्ञीकी सरकार अपनी मंजूरी दे दे। परन्तु लॉर्ड डर्बी दृढ़ रहे और उन्होंने ऐसे किसी प्रस्तावपर विचार करनेसे इनकार किया। इसलिए ट्रान्सवालमें भारतीयोंके प्रति न्याय करनेकी भावनाका जबतक लवलेश भी बचा रहेगा, हमारे सहयोगीकी योजना यद्यपि बड़ी सरल है, तथापि उसके कार्यान्वित होनेमें कुछ कठिनाई अवश्य होगी।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १२-११-१९०३