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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 4.pdf/८१

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ट्रान्सवालके "बाजार"

यह सारे-का-सारा, स्पष्ट रूपसे, १८८५ के कानून ३ के खिलाफ है; क्योंकि, कुछ हो, बस्तियोंके अन्दर तो ब्रिटिश भारतीयोंको भी वैसे ही अधिकार होंगे जैसे कि किसी साधारण व्यक्तिको। यह मामला सरकारके सामने पेश किया गया है।

[अंग्रेजीसे]

इंडिया ऑफ़िस:ज्यूडिशियल ऐंड पब्लिक रेकर्ड्स, ४०२।

 

३९. ट्रान्सवालके "बाजार"

अच्छा हो कि ब्रिटिश भारतीयोंके लन्दन-स्थित मित्र ११ मईको श्री चेम्बरलेनके नाम भेजे गये लॉर्ड मिलनरके खरीतेकी तुलना ट्रान्सवालके अधिकारियोंके उस रुखके साथ करें जो उन्होंने ब्रिटिश भारतीयोंके व्यापारी परवानोंके बारेमें धारण कर रखा है। इन दूकानदारोंके बारेमें लॉर्ड मिलनर अपने खरीतेमें लिखते हैं:

परन्तु सरकार इस बातकी चिन्तामें है कि वह इस कामको (कानूनके अमलको) देशमें पहलेसे बसे हुए भारतीयोंका बहुत खयाल रखते हुए और निहित स्वार्थोंके प्रति—जहाँ इन्हें कानूनके विरुद्ध भी विकसित होने दिया गया है—सबसे अधिक खयाल रखते हुए करे।

इस वक्तव्यको पढ़कर स्वभावतः मनुष्यका यही खयाल हो सकता है कि जितने भी भारतीय इस समय परवाने प्राप्त करके उपनिवेशमें व्यापार कर रहे हैं, उन्हें छेड़ा नहीं जायेगा और उन्हें बस्तियोंमें जानेपर मजबूर नहीं किया जायेगा। परन्तु वास्तविकता कुछ और ही है। कुछ बहुत थोड़े लोगोंको छोड़कर, जिनको लड़ाईके पहले व्यापारी परवाने मिल सके थे, शेष सबको, यद्यपि वे लड़ाईके पहले बगैर परवानोंके व्यापार करते थे, बस्तियोंमें जाना होगा मानो इन लोगोंका कोई निहित स्वार्थ है ही नहीं। इसलिए ट्रान्सवालकी वास्तविक जानकारीके अभावमें इंग्लैंडमें लोगोंको यह गलत खयाल हो सकता है कि ट्रान्सवालकी स्थिति चिन्ता करने लायक नहीं है और, यह कि, जिनके पास परवाने हैं उनको वर्षके अन्तमें छेड़ा नहीं जायेगा। इसलिए हम उन्हें सावधान कर देना चाहते हैं कि अगर उन्होंने अपने दिमागमें ऐसा कोई खयाल बना लिया हो तो उसे हटा दें। लॉर्ड मिलनरके खरीतेके उपर्युक्त उद्धरणके बावजूद वे निश्चयपूर्वक जान लें कि इस समय इन निर्दोष लोगोंको बचानेके लिए भगीरथ-प्रयत्नकी जरूरत है। अगर वह नहीं किया गया तो इस वर्षके अन्तमें सैकड़ों भारतीय व्यापारी बरबाद हो जायेंगे। लॉर्ड मिलनरके खरीतेपर हम जितना ही अधिक विचार करते हैं, उतना ही हमें लगता है कि वह गुमराह करनेवाला है। लॉर्ड महोदय कहते हैं:

जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ, लड़ाईके पहले यहाँ एशियाइयोंके जो निहित स्वार्थ थे, उन्हें सरकार स्वीकार करनेको तैयार है। परन्तु दूसरी तरफ, उसे लगता है कि कानूनके खिलाफ नये निहित स्वार्थोंको खड़े होने देना उचित नहीं होगा। लड़ाईके दरमियान, और युद्ध-विरामके बाद, कितने ही नवागन्तुकोंके नाम व्यापारके अस्थायी परवाने जारी कर दिये गये थे। इन परवानोंकी मियाद ३१ दिसम्बर, १९०३ तकके