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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

वर्ष भारतीय व्यापारियोंके लिए इतनी उदासी लेकर न अवतरित हो, जितना कि इस समय वह प्रतीत हो रहा है।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १९-११-१९०३

४०. भारतके पितामह

भारतकी ताजा डाकमें आये अखबारोंमें श्री दादाभाई नौरोजीकी[१] साल-गिरहपर बहुत लम्बे-लम्बे लेख है। निश्चय ही श्री दादाभाईका भारतमें वही स्थान है जो इंग्लैंडमें श्री ग्लैड्स्टनका था। उन्होंने अपने ७९ वें वर्ष में प्रवेश किया है और उनकी यह वर्षगाँठ सारे भारतमें जैसे मनाई जानी चाहिए थी उसी तरह मनाई गई है। लाखों-करोड़ों मनुष्योंने परमात्मासे प्रार्थनाएँ की कि वह उस वृद्ध पुरुषपर अपने आशीर्वादकी वृष्टि करे, और उसे चिरायु करे। हम भी उन करोड़ोंकी प्रार्थनामें शामिल हैं। हिन्दूकुशसे लेकर कन्याकुमारीतक और कलकत्तासे लेकर कराचीतक श्री दादाभाईके प्रति जनताका जितना प्रेम है उतना और किसी जीवित व्यक्तिके प्रति नहीं है। उन्होंने अपना सारा जीवन अपनी जन्मभूमिकी सेवामें अर्पित कर दिया है और यद्यपि वे पारसी है, फिर भी सारे देशके हिन्दू, मुसलमान, ईसाई और अन्य सब उनके प्रति उतना ही आदर और श्रद्धा रखते हैं जितना कि पारसी खद। भारतकी सेवाके लिए उन्होंने अपने सुख-वैभवको तिलांजलि दे दी और एक निर्वासितका जीवन स्वीकार किया। उन्होंने तो अपना धन भी इसी काममें लगा दिया है। उनकी देशभक्ति शुद्धतम है और उसकी प्रेरणाका एकमात्र स्रोत मातृभूमिके प्रति कर्तव्यकी भावना ही है। यही नहीं, उनका व्यक्तिगत चरित पूर्णत: आदर्श रहा है, जिसका उठती पीढ़ीको हर दृष्टिसे अनुकरण करना चाहिए। जहाँतक हमारा खयाल है, उनके सारे राजनीतिक कार्योंकी बुनियादमें एक प्रबल धार्मिक उत्साह रहा है, जिसे कोई मिटा नहीं सकता। जो देश दादाभाई जैसे पुरुषको जन्म दे सकता है, उसका भविष्य निःसन्देह अत्यन्त उज्ज्वल है। इंग्लैंडकी लोकसभाके लिए एक ब्रिटिश क्षेत्रसे चुने जानेवाले वे पहले भारतीय हैं। अपने इस चुनावके बाद जब वे भारत आये तो उनका स्वागत बड़ी धूमधामसे किया गया। बम्बईसे लाहौरकी उनकी इस विजय-यात्राको जिन्होंने देखा, वे कहते हैं कि उनके स्वागतोत्सवमें जो उत्साह दिखाई दिया, उसकी बराबरी अगर किसी उत्साहसे हो सकती है तो वह चिरस्मरणीय लॉर्ड रिपनके उस समयके सत्कारका उत्साह ही था, जब वे अपने वाइसरायके पदसे निवृत्त हुए थे। ऐसे पुरुषका सम्मान करके निश्चय ही राष्ट्रने अपना ही सम्मान किया है। श्री दादाभाईका जीवन अपार कठिनाइयोंसे भरा पड़ा है (जैसा कि हमारे बहुत-से पाठकोंको ज्ञात है); परन्तु उन सबके बावजूद वे अनुपम श्रद्धा और नि:स्वार्थ भावसे अपने लक्ष्यपर डटे रहे है। देश और जातिकी सेवामें जो धीरज उन्होंने बताया है, दक्षिण आफ्रिकामें हमारे लिए वह एक सबक लेनेकी वस्तु है। राजनीतिक संघर्षों में विजय कभी एक दिनमें नहीं मिल जाती। जो इनमें पड़ते हैं उन्हें अक्सर निराशाओंका ही सामना करना पड़ता है। दक्षिण आफ्रिकामें हम इसका अनुभव कर ही रहे हैं। फिर अगर हम यह स्मरण कर लें कि श्री दादाभाई गत चालीस वर्ष या इससे भी अधिक समयसे इस

  1. देखिए खण्ड १, पृष्ठ ३९३।