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४२. राष्ट्रीय कांग्रेस और दक्षिण आफ्रिकाके भारतीय

इंडियन ओपिनियनके इस अंकके भारत पहुँचते-पहुँचते राष्ट्रीय कांग्रेसके आगामी अधिवेशनकी तैयारियाँ बहुत आगे बढ़ चुकेंगी। इस अधिवेशनके मनोनीत सभापति श्री लालमोहन घोष[१] हैं। हमें जरा भी संदेह नहीं कि देशके प्रति उनको दीर्घकालीन और सुयोग्य सेवाओं एवं अद्वितीय वक्तृत्व-कलासे इस अधिवेशनमें विशाल जन-समूह आकर्षित होगा। श्री लालमोहन घोष मंजे हुए राजनीतिज्ञ हैं और अपने देशभाइयों तथा सरकारमें सहानुभूतिका भाव जागृत करना भली-भाँति जानते हैं। वे इंग्लैंडकी अनेक सभाओंमें श्रोताओंपर अपना सिक्का बैठा चुके हैं और हमें जरा भी शक नहीं कि दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंके प्रश्नको वे बहुत ही योग्यताके साथ संभालेंगे। इस महान सभाके कार्यकी आवश्यक मर्यादाओंका हमें पूरा-पूरा खयाल है। अभी तो यह सरकारके लिए एक स्वेच्छा-संगठित सलाहकार परिषद मात्र है; परन्तु जैसे-जैसे समय बीतता जायेगा, और उसका आकार, बल, ज्ञान और मानसिक सन्तुलन अबतकके ही समान बढ़ता जायेगा, वह जो भी विचार सरकारके सामने रखेगी, सरकार उसका आदर किये बिना न रह सकेगी। उसपर उसे ध्यान देना ही पड़ेगा। दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंका प्रश्न उन थोड़े-से प्रश्नोंमें से एक है जो दलगत राजनीतिसे बिलकुल अलग हैं और जिनके विषयमें कांग्रेस तथा शक्तिशाली आंग्ल-भारतीय दलके बीच किसी प्रकारका मत-भेद नहीं है। अत: उसके लिए दोनों पक्ष कन्धेसे-कन्धा भिड़ाकर काम कर सकते हैं और एक ही मंचसे सरकारसे सर्वसम्मत अपील भी कर सकते हैं। इसके अलावा, इस प्रश्न-विशेषके बारेमें सरकारकी खुशामद करनेकी भी जरूरत नहीं है, क्योंकि लॉर्ड कर्जनने अनेक बार कहा है कि वे इस प्रश्नपर उपनिवेशोंके रुखको बहुत अधिक नापसन्द करते हैं। इसलिए भारतमें तो केवल इतना ही आवश्यक है कि दक्षिण आफ्रिकामें ब्रिटिश भारतीयोंके प्रति न्याय-प्राप्तिके प्रयत्नमें लॉर्ड महोदयके हाथोंको मजबूत करनेके लिए लगातार आन्दोलन किया जाता रहे। हमें आशा है कि इस महान देशभक्तके नेतृत्वमें कांग्रेस हम दक्षिण आफ्रिकी भारतीयोंको नहीं भुलायेगी, यद्यपि भारतके करोड़ों लोगोंकी तुलनामें हम बहुत थोड़े हैं। हमारी निर्योग्यताओंके इस प्रश्नकी तहमें एक महान साम्राज्य-सम्बन्धी सिद्धान्त है, जिसकी सम्भावनाओंका ठीक-ठीक अन्दाजा लगाना भी बड़ा कठिन है। बहुतसे ख्यातनामा आंग्ल-भारतीयोंने भारतीयोंको उनकी साहसिकताको कमी और मानसिक संकीर्णतापर कोसा है, क्योंकि वे काफी बड़ी संख्यामें, अपने देशको छोड़कर किस्मत आजमाईके लिए कहीं नहीं जाते हैं। अब, यह बिलकुल स्पष्ट हो गया है कि भारतसे बाहर जानेपर उनको ब्रिटिश प्रजाजनोंका पूरा दर्जा नहीं मिल सकता। दूसरे देशोंको उनके मुक्त रूपसे प्रवास करनेके मार्गमें यह एक कठिन बाधा है। किन्तु जैसे-जैसे देशमें पाश्चात्य शिक्षाका प्रसार होगा, साहसी भारतीय प्रवासियोंकी शक्तिको बाहरकी ओर प्रवाहित करनेका मार्ग खोलना ही होगा। इन प्रवासियोंका क्या हो, यह प्रश्न छोटा या महत्त्वहीन नहीं है।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १९-११-१९०३
  1. लालमोहन घोष (१८४९-१९०९) वकील, लेखक और भारतको स्वराज देनेके प्रबल समर्थक।