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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय


इस सबका सरकारने जवाब भेजा है कि वह नये स्थानको आरोग्यके लिए हानिकर नहीं मानती। उसने इस बातको टाल ही दिया है कि बस्तीको हटाना नितान्त अनावश्यक है। फिर भी, वह कहती है कि चूँकि स्थानिक निकाय मुआवजा देनेके लिए अथवा बस्तीको हटानेका खर्च उठानेके लिए भी तैयार नहीं है, इसलिए वहाँ रहनेवालोंको अभी छेड़ा नहीं जायेगा। किन्तु अब उनपर नई शर्तें लादी जा रही है, जो अत्यन्त सन्तापकारक है। अगर ये शर्तें न लादी जातीं तो आज ट्रान्सवालमें ब्रिटिश भारतीयोंकी जो स्थिति है, उसे देखते हुए, उक्त समझौता ठीक कहा जा सकता था। परन्तु बस्तीके निवासियोंको वर्तमान बस्तीमें रहनेकी इजाजत जिन शर्तोंपर दी जायेगी उनको देखते हुए तो यह समझौता बिलकुल निकम्मा बन गया है। जो चीज एक हाथसे दी गई है, वह दूसरे हाथसे छीन ली गई है। इन गरीबोंको भेजी गई नई सूचनामें लिखा है:

बस्तीमें केवल वर्तमान परवानेदारोंको और उनकी स्त्रियों तथा बच्चोंको ही रहनेकी छूट होगी। निश्चित तारीखपर वाजिब किराया अदा नहीं किया गया तो उनकी किरायेदारी खत्म कर दी जायेगी। कोई परवानेदार अपने बाड़ेमें उप-किरायेदार न रखेगा और अन्य किसीको नहीं रहने देगा, अन्यथा वह बेदखल कर दिया जायेगा। इसी प्रकार वर्तमान बस्तीके लिए नये परवाने जारी नहीं होंगे और न दिये हुए परवाने दूसरे किसीके नामपर बदले जायेंगे।

ये शर्तें अत्यन्त संतापकारी हैं। किरायेदार दुर्भाग्यवश हम भी है, परन्तु हमें स्वीकार करना चाहिए कि हमारे मकान मालिकने ऐसी कोई शर्तें नहीं लगाई है और अन्य किसी पट्टेमें भी हमने इस तरहकी शर्तें नहीं देखी हैं। इससे तो कहीं अच्छा होता, अगर निकाय सीधा कह देता कि "हम आपको कोई मुआवजा नहीं देना चाहते। फिर भी, आपको नये स्थानपर जाना ही होगा।" परन्तु लोगोंको इस तरह टेढ़े-मेढ़े तरीकोंसे उनके स्थानोंसे खदेड़नेकी नीति उसके निर्माताओंके लिए प्रतिष्ठाकी सूचक नहीं। यह प्रत्यक्ष है कि बारबर्टनका स्वास्थ्य-निकाय ब्रिटिश भारतीयोंसे सम्बन्धित कानूनकी कोई परवाह नहीं करना चाहता। वह जगह, जहाँ ब्रिटिश भारतीय रहते हैं, सन् १८८५ के कानून ३ के अनुसार या तो पृथक बस्ती है, या नहीं है। अगर वह पृथक बस्ती है, और कानूनको समझने में हम कोई भूल नहीं करते, तो हर ब्रिटिश भारतीयको परवानेकी फीस भर देनेपर न केवल वहाँ रहनेका, बल्कि उपकिरायेदारको, और निश्चित रूपसे मेहमानोंको भी, अपने यहाँ रखनेका तथा बस्तीके किसी भी भागमें, जिसमें वह चाहे, व्यापार करनेका भी अधिकार अवश्य है। परन्तु जैसा देख लिया होगा, नई शर्तोंके अनुसार निकाय भारतीयोंको अपने यहाँ मेहमान रखनेसे भी मना करेगा और अगर वे रखेंगे तो उनको "बस्तीसे निकाल देगा।" हमें ज्ञात हुआ है कि मामला सरकारके विचाराधीन है। चिन्ताके साथ हम सरकारके निर्णयकी प्रतीक्षा करेंगे। हम जानना चाहेंगे, बारबर्टनका स्वास्थ्य-निकाय जो-कुछ करना चाहता है, उसके बचावमें लॉर्ड मिलनर क्या कहेंगे।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १९-११-१९०३