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४७. "ईस्ट रैंड एक्सप्रेस" और हम

ट्रान्सवालमें ब्रिटिश भारतीयोंकी स्थितिके बारेमें हमारे विचारोंकी तरफ हमारा सहयोगी बराबर ध्यान देता रहता है। इसे हम अपना सम्मान ही समझते हैं। हम यह भी मानते हैं कि भारतीयोंकी बहुत-सी कठिनाइयोंकी जड़में गलतफहमियाँ हैं और संयमके साथ विचार-विनिमयसे गलतफहमियाँ दूर भी हो सकती हैं। इसलिए हमारे सहयोगीने गत १४ तारीखके अंकमें जो लिखा है उसका जवाब देते हुए हम उस प्रश्नपर फिर वापस आते हैं। सहयोगीने लिखा है कि पीटर्सबर्ग शहरमें लड़ाईसे पहलेकी अपेक्षा भारतीय परवानेदारोंकी संख्या अब कुछ बढ़ गई है। हम इसे स्वीकार करते हैं। परन्तु जहाँतक स्पेलोनकेन जिलेसे सम्बन्ध है, हम अत्यन्त निश्चयपूर्वक कहते हैं कि वहाँ परवानोंकी संख्या में बहुत ही कम वृद्धि हुई है। इस जिलेमें जो भी भारतीय दूकानदार इस समय व्यापार कर रहे हैं वे अपनी अपनी जगहोंमें दस-दस, बल्कि इससे भी अधिक, वर्षोंसे व्यवसाय करते हैं। सहयोगीको हम यह भी बता दें कि उन्हें अपने परवानोंको नये करवानेके लिए बहुत अधिक जद्दोजहद करनी पड़ी है। परन्तु ये तो इक्के-दुक्के मामले हैं और व्यापक रूपसे फैली हुई बीमारीके लक्षण-मात्र है। एक्सप्रेसके इन शब्दोंमें सारा मर्म आ जाता है:

साफ-साफ बात कहना अच्छा होता है, इसलिए हम स्वीकार करते हैं कि सम्भव हो सके तो ट्रान्सवाल अपनी सीमाके अन्दर स्वतन्त्र एशियाइयोंको नहीं चाहता। उसका कारण, जैसा कि कुछ हलकोंमें खयाल मालूम होता है, यह नहीं है कि हम पढ़े-लिखे भारतीयोंको हीन मानते हैं, बल्कि यह है कि कानून-सम्मत शर्तोंपर गोरोंके लिए उनके सम्मुख होड़में टिकना असम्भव है। व्यापारियोंकी हैसियतसे नेटालमें सारे व्यापारपर उनका तेजीसे एकाधिपत्य होता जा रहा है। वे कुशल व्यापारी तो हैं ही; परन्तु इसके साथ अत्यन्त मितव्ययी भी हैं। इस कारण अपने तमाम प्रतिस्पधियोंके मुकाबलेमें वे हर चीज कम कीमतमें बेच सकते हैं। अगर कहीं उनके पैर यहाँ जम गये तो यहाँ भी वही हाल होगा। इसीलिए हम ईस्ट रैंडवासी लोग एशियाइयोंको व्यापारिक या सामाजिक दर्जा देनेके इतने विरोधी हैं। हमें तो सिर्फ एक प्रकारके एशियाईकी जरूरत है, और वह है अकुशल गिरमिटिया मजदूर। आत्मरक्षा प्रकृतिका पहला कानून है। उसका तकाजा है कि यहाँ अन्य सभी लोग वर्जित निवासी हों, भले ही यह कठोरता दिखाई दे। जिन लोगोंके अधिकार फिलहाल यहाँ हैं उनके अधिकारोंकी यथासम्भव रक्षा की जाती रहेगी, परन्तु यहाँ रियायतें तो बन्द होनी ही चाहिए।

भारतीयोंके प्रति उपनिवेशमें जो दुर्भाव है, उसका असली कारण इसमें आ जाता है। इसके जवाबमें बहुत कुछ कहा जा सकता है, परन्तु उसे हम थोड़ेसे-थोड़े शब्दोंमें कहनेकी कोहि करेंगे। ऊपरके कथनमें नेटालका उदाहरण दिया गया है; परन्तु अगर जरा भी गहराईसे उसकी जाँच की जायेगी तो उससे यह प्रकट हो जायेगा कि इससे तो उलटी ही बात सिद्ध होती है। नेटालमें भारतीय व्यापारी बड़ी संख्या में जरूर है; परन्तु व्यापारका सर्वोत्तम भाग तो यूरोपीयोंके ही हाथोंमें है और आगे भी रहेगा। भारतीय व्यापारी जहाँ अपने गुजर-बसरके लिए नेटालमें अच्छी कमाई कर सके हैं, वहाँ उनमें से एकको भी अभी वह दर्जा प्राप्त नहीं हो सका