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"ईस्ट रैंड एक्सप्रेस" और हम

है, जो हारवे, ग्रीनेकर ऐंड कम्पनी—अथवा एस॰ बूचर ऐंड सन्सको, अथवा अन्य बड़े व्यापारी संस्थानोंको प्राप्त है, यद्यपि कुछ भारतीय व्यापारियोंने भी अपने व्यापारका प्रारम्भ उन्हीं दिनों किया था, जिन दिनों इन पेढ़ियोंने। वस्तुतः हम खुद एक भारतीय व्यापारीका उदाहरण जानते हैं, जो अपने साथ पूँजी लेकर आया था। यहाँ उसने एक अध्यवसायी यूरोपीयको अपना साझीदार बना लिया। दोनों गहरे दोस्त बन गये, और आज भी दोनोंके आपसी सम्बन्ध बहुत सन्तोषजनक हैं। फिर भी व्यापार शुरू करते समय जिस यूरोपीयके पास अपनी पूंजी भी नहीं थी, वह दौड़में अपने पुराने साझीको बहुत पीछे छोड़ गया है और अब उपनिवेशमें उसकी स्थिति प्रथम श्रेणीकी है। किन्तु इस घटनाकी व्याख्या बिलकुल स्पष्ट है। भारतीय व्यापारीकी आदतें यूरोपीयके मुकाबले कम खर्चीली है; परन्तु उसमें यूरोपीय व्यापारीकी संगठनशक्ति, अंग्रेजी भाषाकी जानकारी और उसके यूरोपीय सम्बन्धोंसे प्राप्त व्यापारिक लाभकी कमी सहज है। हमारी रायमें भारतीय व्यापारीकी तरह किफायतशारी न होनेकी कमी यूरोपीय व्यापारी इन गुणोंसे पूरी ही नहीं कर लेता, बल्कि उसको इनका और भी अधिक लाभ मिलता है। खुद भारतमें बड़े-बड़े भारतीय व्यापारी संस्थान है; परन्तु वहाँ बड़ी-बड़ी यूरोपीय पेढ़ियाँ इन गुणोंसे ही उनका मुकाबला कर रही हैं। आज भी सबसे अधिक कमाई देनेवाले व्यापार ज्यादातर युरोपीयोंके ही हाथोंमें हैं; यद्यपि भारतीयोंकी योग्यता तथा साहसिकताको वहाँ पूरा-पूरा अवकाश प्राप्त है। इसलिए, चाहे दक्षिण आफ्रिका हो या अन्य कोई देश, भारतीय व्यापारियोंने तो मध्यस्थ या आढ़तियोंका ही काम किया है। हम यह स्वीकार करनेके लिए स्वतन्त्र हैं कि अपवाद रूपमें वे छोटे यूरोपीय दूकानदारोंके मुकाबले में कहीं-कहीं सफलता प्राप्त कर सकते हैं; परन्तु वहाँ भी, जैसा कि सर जेम्स हलेटने कहा है, कुल मिलाकर यूरोपीय व्यापारी ही नफेमें रहते हैं; क्योंकि दूसरे क्षेत्रोंमें उनकी साहसिकताके लिए खूब अवकाश रहता है। यदि भारतीय नेटालमें न आये होते तो जो यूरोपीय व्यापारी काफिरोंके बीच व्यापार करनेवाले छोटे-छोटे दुकानदार बने रहते वे ही आज या तो थोकके बड़े व्यापारी हैं, जिनके मातहत पचासों आदमी काम कर रहे हैं, या खुद ऐसे थोक व्यापारके संस्थानोंमें लगे हुए हैं। आज यहाँ उनकी अपनी करमुक्त जायदादें हैं, और वे बेरिया [डर्बनमें धनीमानी और शौकीन लोगोंके मुहल्ले] में अपेक्षाकृत सुख-चैनकी जिन्दगी बिता रहे हैं। इसलिए हमारा खयाल तो यह है कि भारतीयों की सादगी और किफायतशारीका जरूरतसे ज्यादा तूल बाँधा गया है। परन्तु क्या इस विषयमें साम्राज्यकी दृष्टिसे कुछ भी कहनेको नहीं रह जाता? भलेके लिए हो या बुरेके, और भारतीय कितने ही छोटे क्यों न हों; परन्तु वे आखिर साम्राज्यके हिस्सेदार तो है ही। ऐसी सूरतमें उनकी योग्यता या मिहनत उन्हें जितनेका अधिकारी ठहराये, उतना मुनासिब हिस्सा क्या उन्हें देनेसे इनकार करना उचित है? हमारा सहयोगी चाहता है कि ट्रान्सवालमें भारतीय केवल गिरमिटिया मजदूरोंकी हैसियतसे ही आयें, उससे ज्यादा अन्य किसी हैसियतसे नहीं। आत्मरक्षा अवश्य प्रकृतिका पहला कानून हो सकता है; परन्तु हम नहीं मानते कि प्रकृति किसीको यह भी सिखाती है कि जिसकी सहायतासे वह ऊपर चढ़ा हो उसकी हस्तीको ही मिटा दे। शुद्ध स्वार्थकी दृष्टिसे यह क्षम्य हो सकता है कि आप एक सम्पूर्ण प्रजातिके लिए उपनिवेशके दरवाजे बन्द कर दें। परन्तु प्रकृतिके किसी भी कानूनके साथ इस व्यवहारका मेल बैठाना बहुत मुश्किल मालूम होता है कि एक आदमीका दूसरेके स्वार्थके लिए उपयोग कर लिया जाये और जब उसकी जरूरत समाप्त हो जाये तब उस गरीबको ठोकर मारकर हटा दिया जाये। परन्तु दक्षिण आफ्रिकाका वर्तमान संघर्ष उन लोगोंके अधिकारोंकी पूरी रक्षाके लिए है, जो दक्षिण आफ्रिकामें पहलेसे ही बसे हुए हैं। इस बातको हमारा सहयोगी स्वीकार करता है; परन्तु