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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 4.pdf/९६

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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

साथ ही "यथासम्भव" जैसा सुरक्षित तथा संदिग्ध शब्द जोड़ देता है; पर यह तो इस बातपर निर्भर करेगा कि इस प्रश्नको किस दृष्टि से देखा जाता है और यह "यथासम्भव" शब्द भारतीय समाजकी उचित आवश्यकताओंकी पूर्ति की हदतक जाता है या नहीं। हमारा खयाल है, पत्रकारको हैसियतसे हमारी भाँति हमारे सहयोगीका भी कर्तव्य है कि हम लोकमतको इस तरह शिक्षित करें, जिससे इस कठिनाईको पार करनेका उत्तम मार्ग निकल सके।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २६-११-१९०३

४८. श्री क्रेसवेलका बमगोला

श्री क्रेसवेल अभी कुछ पहलेतक 'विलेज मेन रीफ गोल्ड माइनिंग कम्पनी लिमिटेड' के प्रबन्धक थे, जिससे उन्होंने अब इस्तीफा दे दिया है और वह मंजूर कर लिया गया है। उन्होंने अपना इस्तीफा देते हुए कम्पनीके सेक्रेटरी श्री बिलब्रोको जो लम्बा पत्र लिखा था वह जोहानिसबर्गके पत्रोंमें भी प्रकाशनार्थ भेजा है। जोहानिसबर्गमें वतनी श्रम-आयोगके सामने अपना चौंका देनेवाला बयान देते हुए उन्होंने जो खयाल पैदा किया था उसीकी पुष्टि इस लम्बे पत्रसे होती है। इस बयानमें उन्होंने अत्यन्त निश्चयात्मक रूपसे बताया था कि उस बड़े खाननिगमकी खानोंकी खुदाईके लिए गिरमिटिया एशियाई मजदूर लानेका प्रयत्न आर्थिक आवश्यकताकी अपेक्षा एक राजनीतिक चाल अधिक है। पाठकोंको याद होगा कि उस समय श्री क्रेसवेलने अपने कथनकी पुष्टिमें अपने नाम लिखा गया श्री टारबटका एक पत्र पेश किया था, जिसमें बताया गया था कि इन दिनों गोरे मजदूरोंसे काम लेनेका जो प्रयोग चल रहा है उसे अधिकांश खान-कम्पनियाँ पसन्द नहीं करतीं। यह पत्र पेश करनेके कारण ही श्री क्रेसवेलसे जवाब तलब किया गया था। श्री बिलबो लिखते हैं: "आपके द्वारा श्री टारबटके २३ जुलाई १९०२ के व्यक्तिगत पत्रका प्रकाशन संचालकोंकी दृष्टिमें अक्षम्य है।" श्री क्रेसवेलके लिए यह सम्भव न था कि वे यह डंक सहकर चुप बैठ जाते। कम्पनीको लिखा वह लम्बा पत्र उसीका परिणाम था। श्री क्रेसवेलके प्रति किसीको भी सहानुभूति हुए बगैर नहीं रह सकती। सब कठिनाइयाँ सहकर भी उन्होंने अपनी खानोंपर गोरे मजदूरोंसे काम लेनेका प्रयोग सफलतापूर्वक किया है। वे इसे पूरे दिलसे पसन्द भी करते थे; परन्तु वे वस्तुतः अकेले पड़ गये। अधिक उत्पादन और अधिक मुनाफेकी जोरदार मांग पूरी करने में वे पिछड़ गये। जैसा कि हम इन कालमोंमें पहले अनेक बार लिख चुके है, हम तो यही कह सकते हैं कि इस विषयमें श्री केसवेलने जो रुख ग्रहण किया है, आनेवाली पुश्तोंका लाभ उसीमें है। समय ही बताएगा कि उपनिवेशमें खान-उद्योग तथाकथित विकासके लिए अगर एशियासे कभी गिरमिटिया मजदूर लाये गये तो यह एक गलत कदम होगा, जिससे आनेवाली पुश्तें दुःखी होंगी और इस योजनाके बनानेवालोंकी बेझिझक निन्दा करेंगी। श्री क्रेसवेलका त्यागपत्र तो एक छोटी और व्यक्तिगत बात है। इससे उन्हें आर्थिक कष्ट हो सकता है, या शायद न भी हो। परन्तु वहाँसे उनके हट जानेसे सुधारकोंका काम और भी कठिन हो जाता है। इस दृष्टिसे उनके हट जानेसे उन लोगोंकी बड़ी हानि हुई है, जो न केवल वर्तमान पीढ़ीके कल्याणके लिए चिन्तित है, बल्कि भावी पीढ़ियोंके हितोंका भी उतना ही खयाल रखते हैं।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २६-११-१९०३