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४९. क्लार्क्सडॉर्पका एशियाई "बाजार"

कुछ दिन पहले हमने क्लार्क्सडॉर्पकी एशियाई बस्तीके बारेमें लिखा था। उसके जवाब में हमारे सहयोगी क्लार्क्सडॉर्प माइनिंग रेकर्डने जो बहुत ही संयत लेख लिखा है उसे हम हर्षके साथ अन्यत्र दे रहे हैं। इसमें निकायका यह आश्वासन है कि क्लार्क्सडॉर्पके ब्रिटिश भारतीयोंके साथ असमानता और अन्यायका व्यवहार करनेकी उसकी इच्छा नहीं है। हम उसके लिए निकायके कृतज्ञ हैं। परन्तु हम यह कहनेकी अनुमति चाहते हैं कि सहयोगीने अपने लेखमें कुछ बातें खुद स्वीकार की हैं, जिनसे प्रकट है कि क्लार्क्सडॉर्पके ब्रिटिश भारतीयोंकी स्थिति कितनी कठिन है और प्रस्तावित नये स्थानके बारेमें उनका मन्तव्य कितना उचित है। यह भी साफ तौरपर स्वीकार किया गया है कि प्रस्तावित स्थानके कमसे-कम कुछ हिस्सेको तो जिला-सर्जनके प्रतिवेदनमें भी बुरा बताया गया है। उस आपत्तिका यह कोई जवाब नहीं कि सारे स्थानकी एक साथ जरूरत नहीं होगी। अगर उसकी जरूरत नहीं है तो वह नक्शेमें शामिल ही क्यों किया गया था? अगर आवाती मजिस्ट्रेट ही कुछ नीची भूमिवाले बाड़े अर्जदारोंको दे देते तो उन्हें कौन रोकनेवाला था? सरकारने तो इन बाड़ोंके बँटवारेके सम्बन्धमें बहुत अधिक सत्ता अपने हाथोंमें रख छोड़ी है। वह आग्रह कर सकती थी कि सबसे पहले निचले हिस्सोंको ही निपटायेगी। अब भी हमारा खयाल यही है कि निकायके लिए ऐसा रुख अख्तियार करना और यह कहना ठीक नहीं कि एक बार स्थानका निश्चय हो जानेके बाद उसके हाथोंमें कुछ नहीं रह जाता। आखिर स्थानोंका चुनाव करने में उसका भी तो हाथ था ही। इसलिए हमें यह खयाल अवश्य होता है कि अगर जिला-सर्जनके प्रतिवेदनको पानेके बाद वह निचले हिस्सोंको बाजारकी जमीनमें शामिल करनेका विरोध करता तो यह उसके लिए बहुत शोभाजनक होता। सहयोगी आगे लिखता है:

उल्लिखित स्थान शहरमें उपलब्ध एकमात्र स्थान है। अब केवल तीस बाड़े बचे हैं, जिनको अभी कब्जेमें नहीं लिया गया है; परन्तु किसी भी हालतमें एशियाई बस्तीके तौरपर उनका उपयोग नहीं किया जा सकता। वर्तमान बस्तीके पास शहरके उत्तर और पश्चिममें कुछ बाड़े जोड़े जा सकते थे किन्तु उससे लगे हुए बाड़ोंके मालिक स्वभावतः इस कार्रवाईका विरोध करेंगे।

अब, यह स्पष्ट रूपसे लाचारीकी स्वीकृति है और साथ ही इस बातकी भी कि निश्चित किया गया स्थान शहरसे बड़ी दूरीपर है। ब्रिटिश भारतीयोंके लिए कोई स्थायी स्थान निश्चित करनेके सिद्धान्तको थोड़ी देरके लिए अगर अलग रख दिया जाये, तो हमारा खयाल है कि अगर निकाय कोई ऐसा उपयुक्त स्थान प्राप्त नहीं कर सकता, जहाँ ब्रिटिश भारतीय उतनी ही सुविधासे व्यापार कर सकें जितनी सुविधासे वे शहरमें अबतक कर रहे थे, तो वह उनको जहाँ अभी वे हैं वहीं पड़े रहने दे। परन्तु एक बार उन्हें अलग रखनेका सिद्धान्त स्वीकार कर लेनेके बाद अपने पड़ोसमें ब्रिटिश भारतीयोंको रखनेपर आपत्ति करनेवाले लोग मिल ही जाया करेंगे। तब क्या शहरी निकाय इसी तरह अपनी लाचारी बताकर ब्रिटिश भारतीयोंको शहरोंसे इतनी दूर फेंक देना चाहते हैं, जहाँ व्यापार करना उनके लिए असम्भव हो जाये? अंग्रेज स्वभावतः निहित स्वार्थोंको छेड़ना पसन्द नहीं करते, और अपने विरोधीके साथ भी न्यायका व्यवहार