है कि न जाने कितने लोग जो १९०३ के दिसम्बरतक अच्छे व्यापारी माने जाते रहे हैं, १९०४ के जनवरी महीने में दिवालिया अथवा भिखारी बन जायेंगे। आशंका यह भी है कि ट्रान्सवालमें और उसी तरह नेटालमें भी १९०४ के जनवरी महीने में थोड़े-बहुत व्यापारियोंको भी व्यापार करनेके सालाना परवाने नहीं मिलेंगे, और अगर ऐसा हुआ, तो जहाँ-तहाँ हाहाकार मच जायेगा। इसपरसे भारतके हमारे भाई देखेंगे कि समय बहत नाजुक है, और उसे सँभालनेकी बड़ी जरूरत है। यहाँकी पुकार विलायत या भारततक पहुँचने में देर लगती है, और पहुँचती है, तो पूरे जोरसे नहीं। इस बातको ध्यानमें रखकर यदि भारतीय कांग्रेस अपने कर्तव्यके अनुसार कड़ा विरोध करे और भारतकी सरकारके कान खोले, तो आशा है कि कुछ राहत मिलेगी। कांग्रेस प्रस्ताव पास करे और फिर हरएक इलाकेके कुछ अगुआ लोग गवर्नरोंसे प्रतिनिधिमण्डलोंके रूप में मिलें, और एक प्रतिनिधिमण्डल खुद लॉर्ड कर्जनसे रूबरू मिलकर जनताकी भावना उनपर प्रकट करे, और साथ ही विनती करे कि वे तत्काल तार द्वारा ऐसा सन्देश भेजें, जिससे अत्याचारोंकी रोक हो, तो हमें विश्वास है कि इस देशमें बढ़ते जानेवाले अत्याचारोंकी रोक होगी और देरसे ही सही, पर भारतके लोगोंको इन्साफ मिलेगा।
इंडियन ओपिनियन, २६-११-१९०३
५१. पत्र: दादाभाई नौरोजीको
ब्रिटिश भारतीय संघ
२५ व २६, कोर्ट चेम्बर्स
रिसिक स्ट्रीट
जोहानिसबर्ग
नवम्बर ३०, १९०३
माननीय दादाभाई नौरोजी,
वाशिंगटन हाउस,
७२, एनर्ले पार्क
प्रिय महोदय,
गत सप्ताह सरकारसे एक पत्र मिला था, जिसमें कहा गया था कि वह विधान परिषदसे बाजार-सम्बन्धी सूचनामें इस आशयका संशोधन करनेके लिए कहेगी कि जो लोग लड़ाई आरम्भ होनेपर परवाने लेकर या परवानोंके बिना व्यापार कर रहे थे, वे बाजारों या बस्तियोंके बाहर व्यापार करनेके अधिकारी होंगे। इससे कुछ राहत मिलेगी, किन्तु बहुत कम। समस्त वर्तमान परवानोंके सम्बन्धमें आश्वासनसे कम किसी चीजसे न्यूनतम न्यायके उद्देश्य पूरे नहीं होते। इसके अतिरिक्त, "लड़ाई आरम्भ होनेपर व्यापार" शब्द भी कई उलझनें पैदा करेंगे। उदाहरणके लिए, उनका क्या होगा जो १८९९ के आरम्भमें या उससे पूर्व व्यापार तो करते थे, किन्तु ११ अक्तूबरको ट्रान्सवालमें न तो मौजूद थे और न व्यापार ही कर रहे थे? यद्यपि, मुझे यह प्रतीत होता है कि दोनोंका एक समान ही खयाल रखा जाना चाहिए।